卐 सत्यराम सा 卐
दादू सब देखैं अस्थूल को, यहु ऐसा आकार ।
सूक्ष्म सहज न सूझई, निराकार निरधार ॥
निराकार सौं मिल रहै, अखंड भक्ति कर लेह ।
दादू क्यों कर पाइये, उन चरणों की खेह ॥
*(श्री दादूवाणी ~ भेष/साधु का अंग)*
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साभार ~ https://oshogeetadarshan
उदासीन मनुष्य को कुछ भी परेशान नहीँ कर सकता। उदासीनता का अर्थ है, तटस्थ वृत्ति;जो हो रहा है ठीक है, स्वीकार है। तथाता, जिसमें कोई चुनाव नहीँ है।
घर मे यदि आग लग जाए तो बेचैनी होती है क्योँ? नहीँ लगनी चाहिये थी, ये जो अपेक्षा है मनुष्य की, उससे बेचैनी होती है।
घर नहीँ जलना था, ये छिपी अपेक्षा है। पता न भी हो, अचेतन में छिपी है। घर जलने से ये भीतर की अपेक्षा टूटती है, उससे चेतना डगमगा जाती है। लेकिन जिस मनुष्य की कोई अपेक्षा नहीँ, कुछ भी हो जाए, जो भी हो जाए, उसके विपरीत कोई भाव और आग्रह नहीँ है, इसीलिये चेतना अकंप रहती है, डगमगाती नहीँ। ये चेतना का अकंप होना ही उदासीनता है।
'ब्रह्मा से लेकर खंभ तक, परमात्मा से लेकर पत्थर तक सब उपाधियां झूठी है। इसलिये एक स्वरुप मे रहने वाले पूर्ण आत्मा का सर्वत्र दर्शन करना।' सब पद झूठे हैँ। सब प्रतिष्ठाएं झूठी है। एक उसका ही ध्यान रखना है जो झूठा नहीं है; उस साक्षी मे ही लीन रहना। साक्षी एक ही है।
गरीबी-अमीरी साक्षी मे कोई फर्क नहीं लाती। जो बाहर से उपलब्ध होता है, सब व्यर्थ है। जो भीतर से उपलब्ध होता है, वही सार्थक है। और भीतर से साक्षी चैतन्य ही उपलब्ध होता है।
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