卐 सत्यराम सा 卐
दादू काल रूप मांही बसै, कोई न जानै ताहि ।
यह कूड़ी करणी काल है, सब काहू को खाइ ॥ ८१ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! काल का स्वरूप तो सबके अन्तःकरण में ही बसता है । जो ‘कूड़ी’ कहिये खोटे काम हैं, वे सब काल के ही रूप हैं । परन्तु इस बात को संसारीजन नहीं जानते हैं कि यही काल रूप कर्म हमारा भक्षण कर रहे हैं ॥ ८१ ॥
कामक्रोधौ लोभमोहौ देहे तिष्ठन्ति तस्कराः ।
हरन्ति ज्ञानरत्नानि तस्मात् जागृहि जागृहि ॥
दादू विष अमृत घट में बसैं, दोन्यों एकै ठाँव ।
माया विषय विकार सब, अमृत हरि का नाँव ॥ ८२ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! विष और अमृत, ये दोनों घट कहिए अन्तःकरण में ही हैं । विषय शब्द आदि और काम - वासना ये सब तो विष के समान हैं और निष्काम परमेश्वर का नाम - स्मरण, यही अमृत है । संतजन इसको पीकर अमर होते हैं और सांसारिकजन विषयों को भोगकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं ॥ ८२ ॥
चित्र सौजन्य ~ Gb Rai
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें