शनिवार, 23 अप्रैल 2016

= ६१ =

卐 सत्यराम सा 卐
मन मृगा मारै सदा, ताका मीठा मांस ।
दादू खाइबे को हिल्या, तातैं आन उदास ॥ 
कह्या हमारा मान मन, पापी परिहर काम ।
विषयों का संग छाड़ दे, दादू कह रे राम ॥ 
केता कहि समझाइया, मानै नहीं निलज्ज ।
मूरख मन समझै नहीं, कीये काज अकज्ज ॥ 
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साभार ~ राजेश वशिष्ठ
इंद्रियों की गति सूक्ष्म है। ऐसा नहीं कि जब आप किसी के शरीर को छूते हैं, तभी इंद्रियां छूती हैं। इंद्रियों के छूने के अलग-अलग मार्ग हैं। आंख देखती है, और छू लेती है। देखना आंख के छूने का ढंग है। सुनना कान के छूने का ढंग है। स्पर्श हाथ के छूने का ढंग है। ये सब छूने के ढंग हैं। सब इंद्रियां छूती हैं। इंद्रिय का अर्थ है, स्पर्श की व्यवस्था। सब इंद्रियां स्पर्श करती हैं। सूक्ष्म स्पर्श दूर से हो जाते हैं। स्थूल स्पर्श पास से करने पड़ते हैं। इससे विपरीत काम भी चलता है पूरे समय। शरीर से सबको नहीं छुआ जा सकता। लेकिन एक परफ्यूम डाल कर बड़े सूक्ष्म तल पर, गंध से, सब को छुआ जा सकता है। आवाज, गंध, ध्वनि, दृश्य, दर्शन, वे सब छूते हैं। 
जब आप सज-संवर कर घर से निकलते हैं, तो आप दूसरों की आंख से छुए जाने का निमंत्रण लेकर निकल रहे हैं। और अगर कोई आंख से न छुए, तो आप बड़े उदास लौटेंगे। यह दोहरा काम चल रहा है, छूने का, छुए जाने का। इंद्रियां प्रतिपल इस काम में संलग्न हैं। आपको पता भी नहीं चलता कि यह हो रहा है। यह खयाल में भी नहीं आता। इंद्रियां पूरे समय स्पर्श को लालायित और स्पर्श देने को और लेने को आतुर हैं। ले रही हैं। इंद्रियों से ही संसार का पता चलता हैं, जिस लिए इन्द्रियों को जितना पोषित किया जाये, संसार उतना ही रमता रहता हैं। 

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