रविवार, 24 अप्रैल 2016

= विन्दु (२)७४ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-२)"*
*लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ७४ =*
*= फत्तू कलावत का आना =*

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एक दिन फत्तू नामक कलावत(गायक) दादूजी के दर्शन तथा प्रवचन सुनने दादू आश्रम आया था । प्रवचन समाप्ति पर उसने भजन गाने के लिये अपना वाद्य उठाया और स्वर बाँधने के लिये 'हूं' 'तन' 'री' आदि शब्द बोलने लगा तब परम ज्ञानी दादूजी महाराज ने उसे कहा -
"दादू हूँ की ठाहर है कहो, तन की ठाहर तूं ।
री की ठाहर जी कहो, ज्ञान सु गुरु का यूं ॥"
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मैं स्वतंत्र करता 'हूं' ऐसा अभिमान निज देह में मत करो और इस 'हूं' के स्थान में कहो अर्थात् ईश्वर ही सर्व समर्थ है, उसकी सत्ता से ही सब कुछ होता है । ऐसा कहकर अपने परिच्छिन्न अहंकार को हटाओ । परिच्छिन्न अहंकार का आधार जो सूक्ष्म 'तन' उसके स्थान में भी 'तू' कहो अर्थात् मन, बुद्धि आदि को सत्ता देने वाला भी तू ईश्वर ही है । 'री'(अविद्या) के स्थान में जो भी 'जी' कहो अर्थात् जीव का वास्तविक स्वरूप ब्रह्म ही है, ऐसा कहो । इस प्रकार स्थूल, सूक्ष्म, और कारण अविद्या को त्याग कर अद्वैत ब्रह्म का ही चिन्तन करो । गुरु प्रदत्त ज्ञान इस प्रकार ही बताता है ।
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कहा भी है -
"गुरु दादू पै आय के, भर्यो कलावत नाद ।
ताको यह साखी कही, हरि बिन बकना बाद॥ "
दादूजी महाराज का उक्त उपदेश सुनकर कलावत ने - 'हूँ, हूँ' 'तन, तन' 'री,' करना छोड़कर दादूजी महाराज को प्रणाम किया और कहा गुरुदेव आपका उपदेश यथार्थ तत्त्व का प्रदर्शक है । मैं तो अपनी कला का ही प्रदर्शन कर रहा था किंतु यह मेरी भूल ही थी कि आप जैसे महान् संतों के इस प्रकार के आगे निरर्थक शब्द जो परमात्मा के स्वरूप के बोधक नहीं थे उनको बोल गया, अब मैं अपनी भूल के लिये क्षमा याचना करता हूँ । आप तो क्षमासार संत हैं ही, मुझे अवश्य क्षमा प्रदान ही करेंगे ।
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फत्तू की उक्त नम्रतायुक्त बात सुनकर दादूजी महाराज ने कहा - भाई ! यहां क्रोध का तो कुछ भी काम नहीं है । यहां ब्रह्म चिन्तन करने वाले साधक संत रहते हैं, वे अपनी वृत्ति को प्रायः प्रभु नामों के उच्चारण तथा प्रभु यश गायन में ही लगाते हैं । अतः उन संतों की वृत्ति तुम्हारे शब्दों द्वारा बहिर्मुख नहीं हो, इसी लिये तुम्हारे को उक्त संकेत दिया है । फिर कलावत दादूजी महाराज को प्रणाम करके चला गया ।
*= इति श्री दादूचरितामृत विन्दु ७४ समाप्तः । =*
(क्रमशः)


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