शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

= ५८ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू सब देखैं अस्थूल को, यहु ऐसा आकार ।
सूक्ष्म सहज न सूझई, निराकार निरधार ॥
काया के वश जीव सब, ह्वै गये अनन्त अपार ।
दादू काया वश करै, निरंजन निराकार ॥ 
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जीव अपनी वासना से बंधे होने के कारण दुखी है, और संसार-भावना से जगत् में कभी अधः और कभी ऊर्ध्व को जाकर काम, क्रोधादिक दुःख की पीड़ा पाते हैं । वे कर्म और आशारूपी फाँसी से बाँधे हुए हैं, और शरीर को उठाये फिरते हैं। जैसे मालगाड़ी भार को उठती हैं, तैसे ही कोई मनुष्य शरीर से फिर मनुष्य शरीर को धारते हैं, कोई वृक्ष से वृक्ष होते हैं और कोई और से और शरीर धारते हैं । इसी प्रकार आत्मरूप को भुलाकर जो देह से मिले हुए वासना रूप कर्म करते हैं, वे उनके अनुसार अधः ऊर्ध्व गमन करते हैं। जिनको आत्मबोध हुआ है, वे पुरुष कल्याणरूप हैं, और सब दुःखी मायारूप संसार में मोहित हुए है । यह संसार रचना इन्द्रजाल की तरह है, जब तक जीव अपने आनन्दस्वरूप को नहीं पाता और साक्षात्कार नहीं होता तब तक संसारभ्रम में भ्रमता है, और जिस पुरुष ने अपने स्वरूप को जाना है, और जीवों की तरह त्याग नहीं किया, और बारम्बार संसार के पदार्थों से रहित, आत्मा की ओर गमन करता है, वह समय पाकर आत्मपद को प्राप्त होगा और फिर जन्म न पावेगा

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