🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐सत्यराम सा卐* 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-२)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ७४ =*
*= देवले गमन =*
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फिर दयालदासजी ने नतमस्तक होकर कहा - स्वामिन् ! आप तो पर-मन की जानने वाले महायोगेश्वर है । मेरे मनमें इस समय यही विचार उठ रहा था कि गुरुदेवजी मेरे को कुछ निश्चित कर्तव्य का निर्देश करें । वही आप ने बता दिया है । अब मैं आपके उपदेशानुसार ही निरंतर साधन करने का यत्न करूंगा ।
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इतना कहकर दयालदासजी ने दादूजी महाराज को प्रणाम किया फिर किसी संत सेवारूप कार्य के लिये वे अन्यत्र चले गये । कुछ ही समय के पश्चात् ठाकुर वैरीसाल दादूजी के दर्शन करने आये और साष्टांग दंडवत करके हाथ जोड़े हुये बैठ गये ।
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दादूजी ने उनके मन में उस समय कुछ गर्व का अंकुर देखा और सोचा वैरसाल में यह किंचित् अंकुर है यद्यपि यह अच्छे कार्य का ही है किंतु यह भी उचित नहीं है । भक्त को अपने कर्तव्य का गर्व नहीं करना चाहिये, सदा नम्र ही रहना चाहिये । इसलिये दादूजी बोले -
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*= ठाकुर वैरीसाल को उपदेश =*
गर्व न कीजिये रे, गर्वे होय विनाश ।
गर्वे गोविन्द ना मिलें, गर्वे नरक निवास ॥टेक॥
गर्वे रसातल जाइये, गर्वे घोर अंधार ।
गर्वे भाव-जल डूबिये, गर्वे वार न पार ॥१॥
गर्वे पार न पाइये, गर्वे जमपुर जाय ।
गर्वे को छूटे नहीं, गर्वे बँधे आय ॥२॥
गर्वे भाव न ऊपजे, गर्वे भक्ति न होय ।
गर्वे पिव क्यों पाइये, गर्व करे जनि कोय ॥३॥
गर्वे बहुत विनाश है, गर्वे बहुत विकार ।
दादू गर्व न कीजिये, सन्मुख सिरजन हार ॥४॥
अरे भाई ! गर्व मत करो, गर्व से विनाश होता है । गर्व करने से साधन द्वारा भी गोविन्द नहीं मिलते, गर्व से नरक में ही निवास होता है । रसातल में जाता है, घोर अंधकार में पड़ता है; वार-पार न पाकर संसार-सिन्धु के मध्य क्लेश-जल में ही डूबता है, किसी प्रकार भी पार नहीं जा सकता ।
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यमपुरी में जाता है, मुक्त नहीं होता, प्रत्युत बन्धन में ही पड़ता है । सात्विक श्रद्धा और भक्ति नहीं होती, और किसी प्रकार भी प्रभु की प्राप्ति नहीं होती है । इसलिये गर्व कोई भी न करे, गर्व से बहुतों का विनाश हो गया है । गर्व से विकार उत्पन्न होते हैं । अतः गर्व न करके भजन द्वारा परमात्मा के सन्मुख रहो ।
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उक्त पद को सुनकर वैरीसाल ठाकुर ने नम्रता पूर्वक प्रणाम करके कहा - गुरुदेव ! जैसे वैद्य रोग को पहचानकर उसकी चिकिस्ता करके रोग को दूर कर देता है, वैसे ही आप भी मन के विकार को पहचान कर अपने उपदेश द्वारा उस विकार को मन से निकाल देते हैं । मेरे मन में इस समय ऐसा ही गर्व का अंकुर निकल रहा था कि - इस ग्राम में तो संतों की सेवा विशेषरूप से मैं ही करता हूँ किंतु आपने मेरे मेरे उक्त गर्वरूप अंकुर को निकलते ही अपने उपदेश द्वारा नष्ट कर दिया है ।
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अब आपके उपदेश से मेरे को ज्ञान हो गया है कि अच्छे कार्य का अभिमान भी भगवत् प्राप्ति में बाधक है । इस प्रकार का उपदेश आप जैसे महान् संत ही करते हैं । शेष भेषधारी तो उलटी श्लाधा करके गर्व का अंकुर बढ़ाते ही हैं । फिर तो ठाकुर वैरीसाल अति नम्रता पूर्वक सब कुछ भगवान् का ही जानकार संत सेवा में प्रवृत्त होने लगे थे । किसी भी प्रकार गर्व नहीं करते थे ।
(क्रमशः)
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लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ७४ =*
*= देवले गमन =*
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फिर दयालदासजी ने नतमस्तक होकर कहा - स्वामिन् ! आप तो पर-मन की जानने वाले महायोगेश्वर है । मेरे मनमें इस समय यही विचार उठ रहा था कि गुरुदेवजी मेरे को कुछ निश्चित कर्तव्य का निर्देश करें । वही आप ने बता दिया है । अब मैं आपके उपदेशानुसार ही निरंतर साधन करने का यत्न करूंगा ।
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इतना कहकर दयालदासजी ने दादूजी महाराज को प्रणाम किया फिर किसी संत सेवारूप कार्य के लिये वे अन्यत्र चले गये । कुछ ही समय के पश्चात् ठाकुर वैरीसाल दादूजी के दर्शन करने आये और साष्टांग दंडवत करके हाथ जोड़े हुये बैठ गये ।
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दादूजी ने उनके मन में उस समय कुछ गर्व का अंकुर देखा और सोचा वैरसाल में यह किंचित् अंकुर है यद्यपि यह अच्छे कार्य का ही है किंतु यह भी उचित नहीं है । भक्त को अपने कर्तव्य का गर्व नहीं करना चाहिये, सदा नम्र ही रहना चाहिये । इसलिये दादूजी बोले -
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*= ठाकुर वैरीसाल को उपदेश =*
गर्व न कीजिये रे, गर्वे होय विनाश ।
गर्वे गोविन्द ना मिलें, गर्वे नरक निवास ॥टेक॥
गर्वे रसातल जाइये, गर्वे घोर अंधार ।
गर्वे भाव-जल डूबिये, गर्वे वार न पार ॥१॥
गर्वे पार न पाइये, गर्वे जमपुर जाय ।
गर्वे को छूटे नहीं, गर्वे बँधे आय ॥२॥
गर्वे भाव न ऊपजे, गर्वे भक्ति न होय ।
गर्वे पिव क्यों पाइये, गर्व करे जनि कोय ॥३॥
गर्वे बहुत विनाश है, गर्वे बहुत विकार ।
दादू गर्व न कीजिये, सन्मुख सिरजन हार ॥४॥
अरे भाई ! गर्व मत करो, गर्व से विनाश होता है । गर्व करने से साधन द्वारा भी गोविन्द नहीं मिलते, गर्व से नरक में ही निवास होता है । रसातल में जाता है, घोर अंधकार में पड़ता है; वार-पार न पाकर संसार-सिन्धु के मध्य क्लेश-जल में ही डूबता है, किसी प्रकार भी पार नहीं जा सकता ।
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यमपुरी में जाता है, मुक्त नहीं होता, प्रत्युत बन्धन में ही पड़ता है । सात्विक श्रद्धा और भक्ति नहीं होती, और किसी प्रकार भी प्रभु की प्राप्ति नहीं होती है । इसलिये गर्व कोई भी न करे, गर्व से बहुतों का विनाश हो गया है । गर्व से विकार उत्पन्न होते हैं । अतः गर्व न करके भजन द्वारा परमात्मा के सन्मुख रहो ।
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उक्त पद को सुनकर वैरीसाल ठाकुर ने नम्रता पूर्वक प्रणाम करके कहा - गुरुदेव ! जैसे वैद्य रोग को पहचानकर उसकी चिकिस्ता करके रोग को दूर कर देता है, वैसे ही आप भी मन के विकार को पहचान कर अपने उपदेश द्वारा उस विकार को मन से निकाल देते हैं । मेरे मन में इस समय ऐसा ही गर्व का अंकुर निकल रहा था कि - इस ग्राम में तो संतों की सेवा विशेषरूप से मैं ही करता हूँ किंतु आपने मेरे मेरे उक्त गर्वरूप अंकुर को निकलते ही अपने उपदेश द्वारा नष्ट कर दिया है ।
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अब आपके उपदेश से मेरे को ज्ञान हो गया है कि अच्छे कार्य का अभिमान भी भगवत् प्राप्ति में बाधक है । इस प्रकार का उपदेश आप जैसे महान् संत ही करते हैं । शेष भेषधारी तो उलटी श्लाधा करके गर्व का अंकुर बढ़ाते ही हैं । फिर तो ठाकुर वैरीसाल अति नम्रता पूर्वक सब कुछ भगवान् का ही जानकार संत सेवा में प्रवृत्त होने लगे थे । किसी भी प्रकार गर्व नहीं करते थे ।
(क्रमशः)

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