गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

= ज्ञानसमुद्र(च. उ. ५) =

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🌷🙏🇮🇳 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🇮🇳🙏🌷
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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली 
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, 
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ चर्तुथ उल्लास =*
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*कुण्डलिया* 
*पुरुष प्रकृतिमय जगत है, ब्रह्मा कीट पर्यंत ।* 
*चतुर खांनि लौं सृष्टि सब, शिव शक्ती वर्तंत ॥*
*शिव शक्ती वर्तंत, अंत दुहुंवनि कौ नांहीं ।* 
*एक आहि चिद्रूप, एक जड दीसत छांहीं ॥*
*चेतनि सदा अलिप्त१ रहै, जड सौं नित कुरुखं ।* 
*शिष्य संमुझि यह भेद, भिन्न करि जांनहु पुरुषं ॥५॥*
(१- चेतन पुरुष प्रकृति से सम्बन्ध रहने पर भी उदासीन या सम्बन्ध रहित रहता है, ‘‘जडब्यावृतो जडं प्रकाशयति चिद्रूप: ।’’ 
(सांख्यसूत्र अ०  ६सू० ५०), ‘‘औदासीन्यं चेति’’- सां० सू० अ० १ सू० १६३ इत्यादि से यह बात सिद्ध है । )
हे शिष्य ! ब्रह्मा से कीडे-मकोडे तक यह चारों दिशाओं में सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् सब का सब शिव(=पुरुष, चेतन) तथा शक्ति(=प्रकृति, जड) से युक्त है । कहने का तात्पर्य है कि यह सारा जगत् पुरुष-प्रकृति के संयोग से ही बना हुआ है । इनमें से पुरुष और प्रकृति दोनों का ही अन्त नहीं है । उनमें एक(पुरुष) चिद्रूप है, दूसरी(प्रकृति) जडरुप है, और पुरुष की छाया की तरह काम करती है । चेतन(पुरुष) जड(प्रकृति) के कार्यों से(जल में कमल की तरह) हमेशा अलिप्त रहता है, उदासीन रहता है । हे शिष्य ! जड-चेतन का यह भेद तुम अच्छी तरह समझ लो । और सांख्यशास्त्र का विवेचन करते समय पुरुष को प्रकृति से भिन्न ही समझना ॥५॥
(क्रमशः)

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