गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

= ७४ =

卐 सत्यराम सा 卐
प्रीति जु मेरे पीव की, पैठी पिंजर मांहि ।
रोम-रोम पीव-पीव करै, दादू दूसर नांहि ॥ 
सब घट श्रवणा सुरति सौं सब घट रसना बैंन ।
सब घट नैनां ह्वै रहै, दादू विरहा ऐन ॥
रात दिवस का रोवणां, पहर पलक का नांहि ।
रोवत रोवत मिल गया, दादू साहिब माँहि ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya

ताओ उपनिषाद–(भाग–5) प्रवचन–88.....osho
यह जीने के रास्ते पर मौत की घटना, यह कैसे घटती है?
“जीवन को विस्तार देने की तीव्र कर्मशीलता के कारण।’
अगर तुम अपने भीतर पाओगे…तो मैंने दो ही तरह के लोग देखे। एक, जिनके भीतर और-और-और का मंत्रपाठ चलता है। जो भी है, उससे ज्यादा होना चाहिए। जो भी है, उससे उनकी कोई तृप्ति नहीं। उनके भीतर एक ही स्वर बजता है, एक ही संगीत वे पहचानते हैं: और-और। करोड़ रुपए हों तो भी और, कौड़ी हो तो भी और। कुछ भी न हो तो भी और, साम्राज्य हो तो भी और। उनका मुंह, उनके प्राण अभाव से भरे रहते हैं। जो भी है वह बढ़ना चाहिए।
लाओत्से कहता है, इसी कारण वे, जो जीवन और मृत्यु के पार तत्व है, उससे वंचित रह जाते हैं। जीवन और की दौड़ है, और मौत इसी और की दौड़ का अंत। अगर तुम इस दौड़ में रुक जाओ, उसी क्षण मौत भी रुक गई। फिर बहुरि न मरना होय। फिर दुबारा मरना नहीं होता।
तुम अपने भीतर खोजो, चौबीस घंटे क्या पाठ चल रहा है? कौन सा मंत्र तुम्हारे भीतर काम कर रहा है? तो तुम पाओगे, रोएं-रोएं में, श्वास-श्वास में एक ही आकांक्षा है: जो भी है और बड़ा हो जाए।
करोगे क्या इसे बड़ा करके? अगर तुम्हें रहना ही नहीं आता तो मकान छोटा हो तो भी तुम बेचैन रहोगे, मकान बड़ा हो तो भी तुम बेचैन रहोगे। अगर तुम्हें सोना ही नहीं आता तो तुम गरीब के बिस्तर पर सोओ कि अमीर के राजभवन में, क्या फर्क पड़ेगा? अगर तुम्हें भोजन करना ही नहीं आता तो तुम रूखी रोटी खाओ कि श्रेष्ठतम सुस्वादु भोजन, क्या फर्क पड़ेगा?
दूसरे तरह का आदमी है जो और की दौड़ नहीं करता। जो उसे मिला है–जो भी मिला है–वह उससे परितृप्त है, संतुष्ट है। एक गहन परितोष उसे घेरे रहता है। उसके चारों तरफ एक वायुमंडल होता है परम संतोष का। जो भी मिला है वह बहुत है, उसके भीतर एक स्वर होता है। और उसके कारण वह निरंतर धन्यवाद देता है। उसके भीतर अनुग्रह का भाव होता है। वह परमात्मा को कहता रहता है, धन्यवाद तेरा। जो भी तूने दिया है, उसकी भी कोई पात्रता मेरी न थी। जो भी तूने दिया है, वह मेरी योग्यता से सदा ज्यादा है। उसके भीतर एक अनुग्रह का नाद होता रहता है। उठते-बैठते-चलते एक परम अहोभाव से भरा रहता है।
ये दो ही स्वर के लोग हैं। जिनके भीतर और का नाद है, वे संसारी। और जिनके भीतर अहोभाव का नाद है, वे संन्यासी। कहां तुम रहते हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर तुम्हारे भीतर अहोभाव है तो तुम परम संन्यासी हो। और अगर तुम्हारे भीतर और की ही, और की दौड़ है तो तुम चाहे आश्रम में रहो चाहे हिमालय पर, तुम संसारी रहोगे। तुम अगर अहोभाव से भर जाओ तो स्वर्ग यहीं और अभी है। और तुम और से ही भरे रहो तो तुम जहां भी जाओगे वहीं नरक पाओगे। क्योंकि नरक तुम्हारे भीतर है; स्वर्ग भी तुम्हारे भीतर है

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