卐 सत्यराम सा 卐
ब्रह्म गाय त्रि लोक में, साधु अस्तन पान ।
मुख मारग अमृत झरै, कत ढूँढै दादू आन ॥
दादू पाया प्रेम रस, साधु संगति मांहि ।
फिरि फिरि देखे लोक सब, यहु रस कतहूँ नांहि ॥
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साभार ~ Krishnacharandas Aurobindo ~
क्रममुक्ति को वे योगी प्राप्त करते हैं जिनके अंदर ब्रह्मा-विष्णु या शिवपद की कामनाएँ सुक्ष्म रूप में रह जाती हैं। वे उन लोकों को प्राप्त कर उस ऐश्वर्यादि सिध्दियों का भोग करते है। ब्रह्माकी दो परार्ध की आयु बीतने पर ब्रह्माजी के साथ उनकी भी मुक्ति हो जाती है.....या कुछ योगी एक ब्रह्मांड के विनाश के बाद अन्य ब्रह्मांड में चलें जाते है..... और कुछ योगी भगवान की आग्यासे अन्य कल्प या ब्रह्मांड में संसार को ग्यान देने शंकराचार्य या सनकादिकों की तरह महापुरुषों के रूपमें अवतरित होते हैं।
{जैसे दादूजी सनकादिक से अवतरित हैं ~ श्री दादूदयाल प्राकट्य
सम्वत् चन्द ॠतु नम ही रवि, अष्टमी चैत्र सुदी गुरुवारा ।
पुष्य नक्षत्र उगे तबहीं रवि, दादूदयालु लियो अवतारा ।
शुद्ध स्वरूप निजानन्द आपन, स्वामी जु आयसु तें स्वरूप धारा ।
पूरत आश सबै जग साधुन, भक्ति विलास रच्यो करतारा ॥ १५ ॥
उस समय विक्रम सम्वत् १६०१ की चैत्र शुक्ला अष्टमी तिथि थी, गुरूवार दिवस में पुष्य नक्षत्र का सूर्य उदय हुआ था । तभी ईश्वर - आज्ञा से शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप एक दिव्य सिद्ध ने जगत् - जीवों के कल्याण हेतु, भक्ति धारा को प्रवाहित करने के लिये स्वरूप धारण किया ॥ १५ ॥
ईश्वर और संत भिन्न नहीं
जाहिं प्रकार हुते नभ बादर, सो वर्षा करि लीन भये हैं ।
यों हरि - आयुस तें जन आवत, सो विधि भक्ति बधाय दिये हैं ।
संत स्वरूप धरें जग के हित, दे उपदेश उद्धार किये हैं ।
भक्ति बधाय, मिले परमेश्वर, बादर व्योम जुदे न रहे हैं ॥ १७ ॥
जिस प्रकार आकाश में बादल उपजते हैं, वर्षा करके विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार ईश्वर - प्रेरणा से संत जगत् में प्रकट होते हैं, जीवों पर दया की वर्षा करके, भक्ति बहाकर कल्याण करते हैं, और फिर ईश्वर में ही विलीन हो जाते हैं । जिस तरह बादल और व्योम भिन्न नहीं है, उसी तरह ईश्वर और संत भी भिन्न नहीं है । आकाश और ईश्वर निराकार रूप हैं, तथा बादल और संत साकार रूप हैं ॥ १७ ॥
("संतगुण सागरामृत")}
अन्य सत्यलोक या ब्रह्मलोक से सुक्ष्म शरीर को पृथ्वी से मिलाकर उतावली न कर सात आवरणों का भेद करके मुलप्रकृति से परे अनन्त आनंद में लयको प्राप्त करते हैं। इस भगवन्मयी गति को प्राप्त करके वे फिर सँसार में आनेको बाध्य नहीं होते। ये बात अलग है कि जैसे श्री माँ ने कहा था, " निर्वाण या पुर्णमुक्ति नामकी वस्तु है नहीं.....आनंदस्वरूप परब्रह्म परमात्मा जिसे चाहें उसे वापस निराकार में से निकालकर अपने दिव्य कार्य के लिये साकार कर सकते हैं और अनन्तानन्दस्वरूप भगवान के प्यार भरे आग्रहको ठुकराना किसी के बस की बात नहीं हैं.....जैसे सप्तर्षि मण्डल सें भगवान ने अगस्ति ऋषि को स्वामी विवेकाकनंद के रूपमें आनेको बाध्य किया था।

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