रविवार, 5 जून 2016

= १८९ =

卐 सत्यराम सा 卐
दान पुन्य तप तीरथ मेरे, केवल नाम तुम्हारा ।
यह सब मेरे सेवा पूजा, ऐसा बरत हमारा ॥
तारण तिरण नांव निज तेरा, तुमही एक आधारा ।
दादू अंग एक रस लागा, नांव गहै भव पारा ॥ 
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साभार ~ RK Pathak via @Aparna Singh ~ 

रामकृष्ण के पास एक आदमी आया। उसने कहा : गंगा जा रहा हूं, काशी जा रहा हूं स्नान करने। परमहंस देव, आपका आशीर्वाद है न?
रामकृष्ण तो भोले – भाले, सीधे -सादे आदमी थे। कहते भी थे तो बात बड़ी मीठी कहते थे। कबीर जैसे नहीं थे कि उठाया एक टेंड्पा और मार दिया सिर पर! कबीर की अपनी रौनक है, अपनी शान है!
कबीर खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ।
जो घर बारै अपना चले हमारे साथ।।
कहते हैं : लट्ठ लिए खड़ा हूं, है कोई हिम्मतवार जो घर में आग लगा दे अपनी? लगा दे कोई घर में आग तो हमारे साथ चले! यह शर्त है।
रामकृष्ण तो और ढंग के व्यक्ति थे। बुद्धों में भी ढंग- ढंग के लोग हैं!… रामकृष्ण ने कहा कि ठीक है जाते हो तो जरूर जाओ, मगर एक बात तुम्हें बता दूं…। यह मीठी चोट है और कभी-कभी मीठी चोट कड्वी चोट से भी गहरी होती है, खयाल रखना। मुदिमार! कोई लट्ठ से नहीं मारी जाती। उसने कहा : जरूर कहें परमहंसदेव, क्या कहना है!
कहा : जरा पास आ, तेरे कान में कहूं। तू जा रहा है सो तो ठीक, लेकिन तूने देखा गंगा के किनारे बड़े -बड़े वृक्ष खड़े हैं!
उसने कहा : हा!
‘तुझे पता है वृक्ष क्यों खड़े हैं?’
‘मुझे कुछ पता नहीं। किसी शास्त्र में इसका उल्लेख भी नहीं है कि क्यों वृक्ष खड़े हैं। नदियों के किनारे वृक्ष होते हैं, सो वृक्ष हैं।
रामकृष्ण ने कहा : तुझे फिर पता नहीं। तू जब डुबकी मारेगा गंगा में तो गंगा की पवित्रता के कारण तेरे पाप धुल जाएंगे। मगर पाप इतनी आसानी से छोड़ने वाले नहीं। वे झाडों पर बैठ जाते हैं। फिर तू निकलेगा गंगा से, जब तू वापिस घर की तरफ चलेगा, उचक कर फिर सवार हो जाएंगे। तो अगर तू डुबकी मारे तो निकलना मत फिर, मार ही जाना डुबकी। नहीं तो बेकार हो गया सब। तेरी डुबकी वैसी होगी जैसे हाथी नहाने जाता है; खूब नहाता है, मल-मल कर नहाता है और फिर बाहर आ कर धूल फेंकता है। सब नहाया- धोया खराब कर लेता है। तो तू डुबकी मारे, अगर मेरी मान तो फिर मार ही जाना डुबकी, फिर निकलना मत।
उसने कहा : परमहंसदेव, आप क्या कह रहे हैं! क्या आत्महत्या करनी है, कि डुबकी मारी फिर निकलूं नहीं?
कहा : फिर जाना बेकार फिर आना -जाना ही होगा। वे झाडू पर बैठ जाएंगे चढ़ कर और रास्ता देखेंगे कि बच्चू? आओ… फिर सवार हो जाएंगे। इससे कुछ लाभ न होगा।
रामकृष्ण सीधे -सादे हैं। लट्ठ जैसा नहीं मारते। मगर मार दिया, मार दी कटार-ऐसी कि जो दिखाई भी नहीं पड़ती! यह आदमी गया नहीं फिर काशी, अब क्या खाक जाना है! अब पहले जाओ और काशी के सब झाडू कांटो और फिर पता नहीं झाडू कांटो तो वे कोई जमीन पर ही खड़े रहें। पाप ही हैं, जो झाडू पर चढ़ते हैं, तो जमीन पर ही खड़े रहें! मकानों पर बैठ जाएं। और पापों का क्या, बड़े सूक्ष्म हैं, हवा में पर मारें! वहीं ऊपर फड़फड़ करते रहें, तुम निकलो बाहर, फिर सवार हो जाएं। एक और गंगा है, जो तुम्हारे भीतर बह रही है। उस गंगा का नाम ध्यान है।




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