॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी टीका** ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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दादू पीड़ न ऊपजी, ना हम करी पुकार ।
तातैं साहिब ना मिव्या, दादू बीती बार ॥१०६॥
न तो हमारे में विरह - वेदना प्रकट हुई और न व्याकुल होकर हमने दर्शनार्थ भगवन् की प्रार्थना ही की । इसीलिए हमें भगवन् नहीं मिले और हमारी आयु का समय व्यर्थ ही व्यतीत हो गया ।
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अंदर पीड़ न ऊभरे, बाहर करे पुकार ।
दादू सो क्यों कर लहे, साहिब का दीदार ॥१०७॥
जिसके हृदय में विरह - व्यथा तो उत्पन्न हुई नहीं और केवल लोक दिखावे के लिये बाहर से पुकारता है, यह भगवत् का साक्षात्कार कैसे कर सकता है ?
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मन ही मांहीं झूरणा, रोवे मन ही मांहिं ।
मन ही मांहीं धाह दे, दादू बाहर नांहिं ॥१०८॥
प्रभु दर्शन के इच्छुक विरही को चाहिए - अपने मन में ही विलाप करते हुए धाड़ मार २ कर रोवे, बाहर लोक दिखावे के लिए रोना आदि व्यहवार न करे ।
(क्रमशः)
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