॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
श्री दादू अनुभव वाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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*करणी बिना कथनी*
दादू अक्षर प्रेम का, कोई पढेगा एक ।
दादू पुस्तक प्रेम बिन, केते पढैं अनेक ॥११८॥
कर्त्तव्य रहित कथन पर कह रहे हैं - भगवत् प्रेम रहित अनेक विद्वान् कितनी ही पुस्तकें पढते आ रहे हैं किन्तु भगवन् के अविनाशी प्रेम का पाठ तो कोई विरला एक ही पढेगा या किसी विरले ने ही पढा होगा ।
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दादू पाती प्रेम की, विरला बांचे कोइ ।
वेद पुराण पुस्तक पढैं, प्रेम बिना क्या होइ ॥११९॥
परमेश्वर के प्रेम - पत्र को तो कोई विरले विरही भक्त ही पढते हैं किन्तु चातुर्य बढ़ाने के लिए अनेक मानव वेद - पुराणादि पुस्तकें पढते हैं, परन्तु प्रेम बिना क्या उन्हें भगवद् - दर्शन हो जाता है ? दर्शन तो प्रेम से ही होते हैं ।
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*विरह - बाण*
दादू कर बिन, शर बिन, कमान बिन, मारण खैंचि कसीस१ ।
लागी चोट शरीर में, नख शिख सालै सीस ॥१२०॥
१२० - १२९ में विरह - बाणाघात विषयक विचार कह रहे हैं - भगवन् भक्तजनों के बिना हाथ, बिना शर और बिना धनुष ही निर्दयता१ पूर्वक खींच कर विरह - बाण मारते हैं । विरह – बाण की चोट जिनके शरीर में लग जाती है, उनके शरीर को नख से शिर की शिखा पर्यन्त व्याकुल करती रहती है ।
(क्रमशः)
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