॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
"श्री दादू अनुभव वाणी" टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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= विरह का अँग ३ =
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दादू विरह वियोग न सह सकूँ, मो पै सह्या न जाइ ।
कोई कहो मेरे पीव को, दरश दिखावे आइ ॥८८॥
अब मैं विरही यह वियोग का दु:ख न सह सकूंगा । यह अति असह्य हो चला है, मुझसे सहा भी न जायगा । भगवत् प्राप्त संत जनों में कोई संत तो दया करके मेरे प्रभु को मेरी स्थिति कहो ! जिससे यह मेरे हृदय में आकर मुझे अपना दर्शन देकर कृतार्थ कर सके ।
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दादू विरह वियोग न सह सकूं, निशि दिन साले मोहि ।
कोई कहो मेरे पीव को, कब मुख देखूं तोहि ॥८९॥
मैं विरही वियोग - जन्य दु:ख नहीं सह सकता, कारण यह तो रात - दिन मुझे व्याकुल कर रहा है । भगवत् साक्षात्कार प्राप्त कोई महापुरुष तो मेरे प्रियतम को, मेरी यह प्रार्थना सुनाओ – मैं आपका मुख कब देख सकूंगा ? संभव है नियत समय ज्ञात होने पर दर्शनाशा से मेरे प्राण देह से न निकलें ।
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दादू विरह वियोग न सह सकूं, तन मन धरे न धीर ।
कोई कहो मेरे पीव को, मेटे मेरी पीर ॥९०॥
मैं विरही प्रभु - वियोग नहीं सहन कर सकूंगा, क्योंकि मेरा तन अति कृश होने से और मन प्रभु - साक्षात्कार की आशा से अधीर हो रहा है । अत: भगवत् प्राप्त कोई दयालु पुरुष तो मेरे प्रियतम को मेरी स्थिति कहो, सम्भव है मेरी स्थिति सुनने से उन्हें दया आ जाय और वे मुझे दर्शन देकर मेरी वियोग – व्यथा नष्ट कर दें ।
(क्रमशः)
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