रविवार, 31 जुलाई 2016

= विरह का अंग =(३/१२७-९)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
श्री दादू अनुभव वाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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सहजैं मनसा मन सधै, सहजैं पवना सोइ ।
सहजैं पंचों थिर भये, जे चोट विरह की होइ ॥१२७॥
यदि प्राणी के हृदय में भगवद् - विरह की चोट पदार्थों जाय तो स्वागाविक ही उसकी मनोवृत्तियाँ अन्तर्मुख होकर मन प्रभु में स्थिर हो जाता है । मन के स्थिर होने पर प्राण की गति सूक्ष्म होकर यह भी स्थिर हो जाती है । प्राण, मन, निरोध के सिद्ध होते ही पंच ज्ञानेन्द्रियें स्वाभाविक ही परमात्मा के स्वरुप में पदार्थों कर स्थिर हो जाती हैं ।
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मारणहारा रहि गया, जिहिँ लागी सो नांहिं ।
कबहूं सो दिन होइगा, यहु मेरे मन मांहिं ॥१२८॥
जिसके भी भगवद् - विरह - बाण की चोट लगी, उसका देहादि अंधकार सब नष्ट हो गया और उन असत्य अंधकारों के स्थान में विरह - बाण को मारने वाले भगवन् ही अभेद रूप से स्थिर हो गये । प्रभो ! उक्त प्रकार से मेरा और आपका अभेद होगा, वह दिन कब उदय होगा ? उसे देखने की मेरे मन में उत्कट अभिलाषा है ।
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प्रीतम मारे प्रेम सौं, तिनको क्या मारे ।
दादू जारे विरह के, तिनको क्या जारे ॥१२९॥
जिन भक्तों का मन भगवद् - विरहाग्नि से जल चुका है, उन्हें काम, शोकादि क्या जलावेंगे ? अर्थात उनके मन पर कामादि अपना प्रभाव नहीं डाल सकते । जिनको प्रियतम प्रभु ने अपने प्रेम से मारा है, उन्हें काल क्या मारेगा ? वे तो काल - कलना से रहित ब्रह्मरूप हो जाते हैं ।
(क्रमशः)

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