रविवार, 31 जुलाई 2016

= विन्दु (२)८१ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-२)"*
*लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ८१ =*
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*= मेड़ते पधारना =*
मेड़ता नरेश जैमल के पौत्र और सुलतान के पुत्र मेड़ता नरेश कृष्णसिंह ने दादूजी को कालू ग्राम से आग्रह पूर्वक मेड़ता बुलाया । उसका प्रेम देखकर दादूजी मेड़ता पधारे । उस समय कृष्णसिंह अपनी भक्त प्रजा के सहित बड़ी धूम-धाम से संकीर्तन करते हुये दादूजी के सामने आये और प्रणाम सत्यराम करके विधिपूर्वक पूजा करके अति सत्कार से दादूजी को नगर में ले गये ।
नगर के लोग दादूजी के दर्शन और सत्संग से महान् लाभ उठाने लगे । फिर एक दिन कृष्णसिंह कुछ जिज्ञासा से हाथ जोड़े हुये दादूजी के सामने बैठे थे । उनको उस स्थिति में देखकर दादूजी ने इस पद से उन्हें उपदेश किया -
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*= कृष्णसिंह को उपदेश =*
मेरी मेरी करत जग क्षीणा, देखत ही चल जावे ।
काम क्रोध तृष्णा तन जाले, तातैं पार न पावे ॥टेक॥
मूरख ममता जनम गमावे, भूल रहे इहिं बाजी ।
बाजीगर को जानत नांहीं, जन्म गमावे वादी ॥१॥
प्रपंच पंच करे बहुतेरा, काल कुटुम्ब के तांई ।
विष के स्वाद सबहिं ये लागे, चीन्हत नांहीं ॥२॥
येता जिय में जानत नांहीं, आय कहां चल जावे ।
आगे पीछे समझे नांहीं, मूरख यूं डहकावे ॥३॥
ये सब भरम भान भल पावे, शोध लेहु सो सांई ।
सोई एक तुम्हारा साजन, दादू दूसर नांहीं ॥४॥
उपदेश से सचेत कर रहे हैं - जगत के प्राणी "यह नारी मेरी है, यह संपत्ति मेरी है । " ऐसे करते करते ही क्षीण हो जाते हैं और नारी तथा संपत्ति भी देखते देखते ही उसके हाथ से चली जाती है । काम, क्रोध, तृष्णादि हृदय को जलाते रहते हैं, इसलिये संसार से पार नहीं जा सकता है ।
मूर्ख ममता द्वारा इस संसार रूप बाजी में ही मोहित रहते हैं और परमेश्वर रूप बाजीगर को न जानकार अपना जन्म व्यर्थ ही खो देते हैं ।
पंच ज्ञानेन्द्रियों के तथा कालरूप कुटुम्ब के पोषणार्थ बहुत प्रपंच करते है और ये सब प्राणी विषय-विष के स्वाद में ही लगे रहते हैं । इसीलिए अपने वास्तविक हित को नहीं पहचानते । इतना भी नहीं जानते - "कहां से आया हूँ और कहां जा रहा हूँ ।"
पहले भोगकर आया उनको तथा दुष्कर्म से होने वाले भविष्य के क्लेशों को नहीं समझता है । इसलिये इस प्रकार विषयों में बहक जाता है । इन सांसारिक संपूर्ण भ्रमों को अच्छी प्रकार नष्ट करके प्रभु की खोज करता है, वही प्रभु को प्राप्त करता है । वह एक परमात्मा ही तुम्हारा सच्चा मित्र है, अन्य कोई भी नहीं है ।
इस प्रकार समझ करके ही तुम अपना राज कार्य करोगे तो तुम्हारे पितामह के समान तुम भी प्रभु को प्राप्त हो जाओगे । कृष्णसिंह उक्त उपदेश से अति प्रभावित हुये और दादूजी महाराज के ही शिष्य हो गये । फिर दादूजी के उपदेशानुसार राज कार्य करने लगे ।
(क्रमशः)

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