बुधवार, 10 अगस्त 2016

= विरह का अंग =(३/१४८-१५०)


॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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राम विरहनी ह्वै रह्या, विरहनि ह्वै गई राम । 
दादू विरहा बापुरा, ऐसे कर गया काम ॥१४८॥ 
जब भगवन् के प्रति भक्त का विनीत विरह अनन्यभाव से अन्तःकरण में आया, तब एक ऐसा विचित्र कार्य कर गया, जो किसी अन्य से होना असंभव ही था । यह बता रहे हैं – राम विरहनी हो गये और विरहनी राम बन गई अर्थात राम और विरही भक्त में तादात्म्य हो गया । 
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विरह बिचारा ले गया, दादू हमको आइ । 
जहँ अगम अगोचर राम था, तहँ विरह बिना को जाइ ॥१४९॥ 
भगवन् के विनीत विरह ने हमारे अन्तःकरण में आकर, हमें सांसारिक भोगासक्ति से उठाया और मन से अगम, इन्द्रियों के अविषय, राम के वास्तव - स्वरुप में अभेद भाव से स्थिर कर दिया है । उस राम के स्वरुप में विरह बिना कोई भी प्रवेश नहीं कर सकता । अत: विरह ने हमारा बड़ा उपकार किया है । 
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विरह बापुरा आइ कर, सोवत जगावे जीव । 
दादू अंग लगाइ कर, ले पहुँचावे पीव ॥१५०॥ 
भगवन् का विनीत विरह भक्त के हृदय में आकर, भोगासक्ति रूप निद्रा से उसके अन्तःकरण को जगाता है और अपने स्वरुप के साथ लगाकर अर्थात विरही बनाकर, सांसारिक भावनाओं से ऊंचे उठा लेता है और भगवत् - स्वरुप में पहुँचा देता है । भक्त और भगवन् को एक कर देता है ।
(क्रमशः)

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