गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

= विन्दु (२)८९ =

॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)** 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विन्दु ८९ =**

**= क्रांजली पधारना =**
शनैः शनैः ब्रह्म भजन करते हुये क्रांजली ग्राम को जा पहुँचे । फिर सेवा द्वारा संतों को सुख देने वाले रामदास और पूर्ण रूप से गुरुभाव रखने वाली राणीबाई दोनों ही अति प्रसन्न हुये । दोनों ही दादूजी के शिष्य और प्रभु के भक्त थे । रामदास और राणीबाई ने स्त्री पुरुष का संबंध छोड़ दिया था । वे दोनों प्रभु के भजन में रत्त रहते थे । उक्त भक्तों ने गुरुदेव के पधारने के उपलक्ष्य में अच्छा उत्सव मनाया था । दादूजी महाराज की आरती की और भक्ति पूर्वक सभी संतों की अच्छी सेवा की थी । रामदास राणीबाई सौ शिष्योंमें हैं । यहां ही सांगानेर का वीरम नामक भक्त दादूजी के पधारने की बात सुनकर आ गया था । उसने सप्रेम प्रार्थना की - स्वामिन् !आप सांगानेर पधार कर वहाँ के भक्तों को दर्शन तथा सत्संग से कृतार्थ करने की कृपा अवश्य करें । तब दादूजी महाराज ने स्वीकृति दे दी । फिर उसके साथ पधारे । 

**= सांगानेर पधारना =** 
सांगानेर पधारने पर वहां के भक्तों को अति हर्ष हुआ । उन वीरम आदि भक्तों की हरि में तो प्रीती थी ही फिर गुरु से भी मिलाना हो गया । इससे उनको अति आनंद की प्राप्ति हुई । सांगानेर में अच्छा सत्संग होने लगा । भक्त जनता दादूजी और उनके शिष्य संतों के दर्शन तथा सत्संग से लाभ उठाने लगी । एक दिन वीरेम हाथ जोडे हुए कुछ जिज्ञासा लेकर दादूजी के सामने बैठे थे । दादूजी ने उनको इस प्रकार बैठे देख कर तथा उनके अधिकार का विचार करके यह पद बोला - 
"सहज सहेलड़ी हे, तू निर्मल नैन निहारि, 
रूप अरूप निर्गुण अवगुण में, त्रिभुवन देव मुरारि ॥टेक॥ 
बारं बार निरख जग जीवन, इहिं घर हरि अविनाशी । 
सुन्दरि जाय सेज सुख विलसे, पूरण परम निवासी ॥ १ ॥ 
सहजैं संग परस जग जीवन, आसण अमर अकेला । 
सुन्दरि जाय सेज सुख सोवे, जीव ब्रह्म का मेला ॥ २ ॥ 
मिल आनन्द प्रीति कर पावन, अगम निगम, जहँ राजा । 
जाय तहां परस पावन को, सुन्दरि सारे काजा ॥ ३ ॥ 
मंगलाचार चहूँ दिशि रोप, जब सुन्दरि पिव पावे । 
परम ज्योति पूरे से मिलकर, दादू रंग लगावे ॥ ४ ॥ 
अपनी बुद्धि वृत्ति को निमित्त करके साक्षात्कारार्थ उपदेश कर रहे हैं - हे बुद्धि वृत्ति रूप सहेली ! तू निर्द्वन्द्व होकर संशय विपयर्य - मल रहित ज्ञान नेत्रों से त्रिभुवन के रूपवान्, अरूप, सुगुण रहित और अवगुण सभी पदार्थों में मुरारि देव को देख । वे अविनाशी हरि इस हृदय घर में ही है, उन जगजीवन को बारंबार देख । हे सुन्दरि ! ऐसा करने से तू सब विश्व में निवास करने वाले परिपूर्ण प्रभु की स्वरूपाकार शय्या पर जाकर परम सुख का उपभोग करेगी । अनायास ही जगजीवन प्रभु के संग होकर उनके स्पर्श द्वारा अद्वैत और अमर आसन प्राप्त करेगी । ऐसे जब वृत्ति सुन्दरि अद्वैत अमर शय्या पर जाकर ब्रह्मानन्द रूप निद्रा में शयन करती है, तब जीव और ब्रह्म एक हो जाते हैं । जहां वेद से अगम प्रभु शोभित हो रहे हैं, वहाँ ही पवित्र प्रीति द्वारा उनसे मिलकर आनन्द ले । वहाँ जाकर जो वृत्ति सुन्दरि पवित्र प्रभु का स्पर्श करती है, वह अपने कार्य को पूर्ण कर लेती है । जब वृत्ति सुन्दरि पवित्र प्रभु को प्राप्त करती है तब अन्तःकरण चतुष्टय रूप चारों ही दिशाओं में मंगलाचरण होने लगते हैं और वह साधक परम ज्योति स्वरूप पूर्णब्रह्म से मिलकर अन्यों के भी वही रंग लगाता है । उक्त उपदेश को सुनकर वीरम का हृदय कमल खिल गया अर्थात् अति हर्षित हुआ । 
(क्रमशः)

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