गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

= पंचेन्द्रियचरित्र(मी.च. ६१-२) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*(ग्रन्थ ३) पंचेन्द्रियचरित्र*
*मीनचरित्र(३)=(३) श्रृंगी ऋषि की कथा*
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*अब हम तुम मिलि तहां जइये ।*
*इन कौं सुख दैं तब अइये ।*
*ॠषि चले बिलंब न कीनौं ।*
*गनिका तब कर गहि लीनौं ॥६१॥* 
अब आप और हम मिलकर इनकी बात मान कर इनके आश्रम पर भी चलें, वहाँ, कुछ दिन रहकर इनको सुख-सन्तोष देकर पुनः अपने आश्रम पर लौट आयेंगे ।" ॠषि यह सुन कर चलने को तैयार हो गये, कुछ भी देर नहीं की ! वेश्या ने तब उनका हाथ पकड़ लिया ॥६१॥ 
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*लै आई नगर मझारी ।*
*ॠषि देखा दृष्टि पसारी ।*
*ॠषि शौर सुनौ जब कानां ।*
*मन मैं उपज्यौ तब ज्ञाना१ ॥६२॥* 
(१. छन्द२५ से अन्त तक जो ऋष्यश्रृंग मुनि का चरित्र वर्णित है इसका किंचित् सार ऊपर प्रथमोपदेश के ३९ वें छन्द की टीका में दे आये हैं । यह चरित्र रामायणादि ग्रंथों में विस्तार से दिया गया है । उल्लास शब्द से यहाँ प्रकरण या आख्यायिका समझना चाहिये । 
यह ऋष्यश्रृंग मुनि का आख्यान सर्वप्रथम बाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड नवें सर्ग से ग्यारहवें सर्ग तक - सुमन्त्र सारथी ने राजा दशरथ को कहा है - उसका सार यह है - " पहिले भगवान् सनत्कुमार ॠषि ने ॠषियों से आपको पुत्र प्राप्ति के विषय में कहा था कि कश्यप ॠषि के विभाण्डक नामक सुप्रसिद्ध पुत्र है उसके ऋष्यश्रृंग नाम का पुत्र होगा । उसके पिता उसका पालन पोषण बन में ही करेंगे । वे अपने पिता के साथ बनचारी ब्राह्मण रह कर सब प्रकार के ब्रह्मचर्य व्रत धारे रहे । उन्होंने संसार का कुछ जाना ही नहीं था : वे अग्नि और पिता की सेवा में रत रहते थे । 
दैववशात् अंग देश में रोमपाद राजा के अत्याचारों से दुर्भिक्ष पड़ा, किसी उपाय से न मिटा । राजा-प्रजा महादुःखी हुये । वेदाध्ययन से बढ़े हुए ब्राह्मणों से अकाल निवारण का उपाय पूछा । तो उन लोगों ने कहा कि विभाण्डक के पुत्र ऋष्यश्रंग को किसी प्रकार बुलवाइये । 
उन वेदपारगामी महातपस्वी ऋष्यश्रृंग को परमादर से सावधानी से बुलाकर अपनी कन्या शांता को दे दो । राजा को चिन्ता हुई कि अब ऋष्यश्रृंग कैसे आवें । पुरोहित और मंत्री को लाने को कहा तो वे नीचे मुख करके रह गये । और कहा कि हम विभाण्डक से डरते हैं सो ऋष्यश्रृंग को नहीं ला सकते । 
फिर उपाय सोचा गया कि चतुर रूपवती वेश्याएँ जाकर ॠषि को अपनी चतुराई से लिवा लावैं । ऋष्यश्रृंग बन में रहकर वेद पढ़ने और तपस्या करने के सिवा कुछ नहीं जानते थे । अब वेश्याएँ सुन्दर सजावट और ठाठ से बन में गयीं और ऋष्यश्रंग मुनि के देखने का उपाय करने लगी । वह बड़े भारी धीरज-वाले मुनि ऋष्यश्रंग पिता के लाड़ प्यार से सदा संतुष्ट रहते थे इससे आश्रम से बाहर कहीं भी नहीं जाते थे । उन्होंने जन्म से लेकर अब तक कभी स्त्री नहीं देखी थी और न कुछ नगर का ही दृश्य देखा था । एक दिन ऋष्यश्रंग खेलते-खेलते वेश्याओं के स्थान तक आ गये । वहाँ उन स्त्रियों को देखा । 
वे मधुर स्वर से गाती-गाती ॠषि के पास आकर कहने लगी कि आप कौन हैं, और क्या काम करते हैं ? और इस दूर के निर्जन वन में किसलिये विचरते हैं ? ॠषि-पुत्र ने कहा "मेरा नाम ऋष्यश्रंग है, मैं विभाण्डक का पुत्र हूँ जिनका मैं औरस पुत्र हूँ । मेरा नाम पृथ्वी भर में प्रसिद्ध है । मेरा आश्रम समीप   ही है, आप वहाँ चले आप का सत्कार करूँगा ।" 
वे सब वहाँ गयी । ॠषिपुत्र ने पाद्यार्थ और फल फूल से सत्कार किया । उन्होंने अंगीकार किया, परन्तु विभाण्डक के भय से शीघ्र वहाँ से चले आने का विचार किया । ऋष्यश्रंग को बहुत उत्तम उत्तम पदार्थ खाने को दिये और उनसे आलिंगन किया । ऋष्यश्रंग ने उनको खाकर समझा कि ये भी एक प्रकार के फल है । 
फिर वेश्याएं तो वहाँ से उस दिन चली गयी । ॠषिपुत्र उनके वियोग में दुःखी रहे । दूसरे दिन वे उसी स्थान में पहुँचे । वेश्याएँ देखकर बहुत प्रसन्न हुई और ॠषिपुत्र को कहा कि आप हमारे आश्रम में पधारिये वहाँ नाना प्रकार के स्वादु पदार्थ खाने को हैं । इस पर ऋष्यश्रंग उनके साथ हो लिये । 
इस प्रकार वेश्याएँ ऋष्यश्रंग को अंग देश में लिवा लाई । वहाँ आते ही इन्द्र एक साथ जगत् को प्रसन्न करते हुये वर्षा करने लगे । राजा रोमपाद ने उनका बहुत सत्कार किया और अपने रनवास में ले जा कर अपनी कन्या शान्ता से शास्त्रविधि से विवाह कर दिया । फिर ऋष्यश्रंग अपनी पत्नी सहित अंग देश ही में रहे ॥इति॥ 
यह आख्यान भागवत, पद्मपुराण आदि में भी आया है । ॠषि को हरिणी-गर्भ-संभूत भी लिखा है । उनके सिर पर सींग भी लिखा है ॥ और उन्हें अपने शहर में ले आयी । वहाँ ॠषि ने नजर फैला कर देखा । और अपने कानों से लोगों के ताने सुने तो उनका विवेक फिर से जागृत हुआ ॥६२॥) 
(क्रमशः)

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