शनिवार, 31 दिसंबर 2016

= १८५ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू मैं नाहीं तब एक है, मैं आई तब दोइ ।
मैं तैं पड़दा मिट गया, तब ज्यूं था त्यूं ही होइ ॥ 
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

साधारण जीवन में भी प्रेम तभी खुलता है जब तुम खो जाते हो। जब तुम डूब जाते हो। जब मैं की आवाज बंद हो जाती है। और जब मैं से भी महत्वपूर्ण तू हो जाता है और तू ही जब तुम्हारा जीवन हो जाता है। तुम अपने को मिटा सकते हो प्रेमी के लिए, प्रेयसी के लिए, आनंदभाव से तुम मृत्यु में उतर सकते हो, तभी प्रेम फलित होता है। जब साधारण जीवन में प्रेम फलित होता है, तब भी वही झलक आती है कि एक ही रह जाता है, दो मिट जाते हैं।

लेकिन जब उस परम प्रेम का उदय होता है, तब तो निश्चित ही तुम्हारी रूप-रेखा भी नहीं बचनी चाहिए। तुम्हारा नाम-ठिकाना भी नहीं बचना चाहिए। तुम तो बिलकुल ही मिटोगे तभी वह हो सकेगा। जीसस का वचन है, जो अपने को बचाएंगे वे खो जाएंगे, जो अपने को खो देंगे वे बच जाएंगे। वहां तो मिटने वाला सब कुछ पा लेता है और बचाने वाला सब कुछ खो देता है।

कहते हैं नानक, 'जो कोई अपने आप को कुछ समझता है, वह उसके आगे जा कर शोभा नहीं पाता।' सच तो यह है, वह उसके आगे पहुंच ही नहीं पाता। क्योंकि जिसकी आंखों में अकड़ है, उसकी आंखें अंधी हैं। और जिसके हृदय में यह खयाल है, मैं कुछ हूं, उसका व्यक्तित्व बहरा है, जड़ है, वह मरा ही हुआ है। वह परमात्मा के सामने आ ही नहीं सकता। परमात्मा तो सदा तुम्हारे सामने है। लेकिन जब तक तुम हो, तुम उसे न देख पाओगे। क्योंकि तुम ही बाधा हो। जैसे ही बाधा गिर जाती है, तुम्हारी आंखें निर्मल हो कर खुलती हैं बिना किसी भाव के कि मैं हूं। तुम बिलकुल ना-कुछ की तरह होते हो। एक शून्य ! उस शून्य में तत्क्षण वह प्रवेश कर जाता है।

कबीर ने कहा है, सूने घर का पाहुना।
जैसे ही तुम शून्य हुए, वह अतिथि आ जाता है। जब तक तुम अपने से भरे हो, तुम उसे चूकते रहोगे। जिस दिन तुम खाली होओगे, वह तुम्हें भर देता है।

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