रविवार, 1 जनवरी 2017

= विन्दु (२)८९ =

॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)** 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विन्दु ८९ =**

सत्संग में बैठे हुये कुंभा ने पूछा - स्वामिन् ! जिसको प्रभु का साक्षत्कार हो गया हो उसकी क्या पहचान है ? कृपा करके बतावें । तब दादूजी ने यह साखी बोली - 
= कुंभा के प्रश्न का उत्तर = 
"दादू दया दयालु की, सो क्यों छानी होय ।
प्रेम पुलक मुलकत रहै, सदा सुहागिन सोय ॥" 
जिस भक्त पर परम दयालु भगवान् की दर्शन देना रूप दया होती है, वह किसी भी प्रकार छिपती नहीं है । जैसे महिला का पति पास रहने से महिला प्रसन्न रहती है, वैसे ही वह भक्त सर्वदा अपने प्रभु का दर्शन करके प्रेमानन्द में पुलकित होकर प्रसन्न रहता है । फिर पास में बैठे हुये नन्दा ने पूछा - स्वामिन् ! काम, क्रोध, लोभ, मोहादिक कब तक व्यापते हैं ? यह आप मुझे बताने की कृपा करें । तब दादूजी ने यह साखी बोली - 
= नन्दा के प्रश्न का उत्तर = 
दादू जब लग असथल देह का, तब लग सब व्यापै । 
निर्भय असथल आतमा, आगे रस आपै ॥" 
जब तक स्मरण का स्थल स्थूल सूक्ष्म शरीर ही रहता है अर्थात् मानव दोनों शरीरों की उन्नति आदि के लिये ही सकाम स्मरण करता है, तब तक उसको काम, क्रोध, लोभ, मोह भयादि सभी गुण व्यापते हैं और जब देहाध्यास रहित होकर स्मरण का स्थल आत्मा ही हो जाता है, तब निरंतर आत्म चिन्तन ही होने लगता है, उसके पश्चात् तो आत्मा एक रस ब्रह्मरूप ही हो जाता है । फिर पास बैठे हुये धारू ने दादूजी से पूछा - भगवन् ! सर्वत्र ब्रह्म ही कब भासने लगता है ? तब दादूजी ने यह साखी कही - 
= धारू के प्रश्न का उत्तर = 
"जब नांहीं सुरति शरीर की, विसरे सब संसार ।
आत्म न जाने आप को, तब एक रह्या निर्धार ॥" 
जब स्मरण करते - करते शरीर का भी ध्यान नहीं रहता है तब तो साधक संपूर्ण सांसारिक भोग - वासनादि विकारों से मुक्त हो जाता है और जीवात्मा अपने ब्रह्म से भिन्न नहीं जानता तब विचार द्वारा यही निर्णय होता है - एक अद्वैत ब्रह्म ही संपूर्ण विश्व में भरा हुआ है । उस समय सर्वत्र ब्रह्म ही ब्रह्म भासने लगता है । पश्चात् वहां ही बैठे हुये नारायण ने पुछा - सर्वत्र ब्रह्म ही ब्रह्म किस दृष्टि से भासता है ? तब दादूजी महाराज ने यह साखी बोली - 
= नारायण के प्रश्न का उत्तर = 
"चर्म दृष्टि देखैं बहुत, आतम दृष्टि एक । 
ब्रह्म दृष्टि परिचय भया, तब दादू बैठा देख ॥" 
संसार में गौर, कृष्ण, स्थूल, कृश आदि रूपों को अपने चर्म चक्षुओं से देखने वाले तो बहुत हैं किन्तु विचार नेत्रों द्वारा सबको एकात्म भाव से देखने वाला आत्मज्ञानी कोई विरला ही होता है । ब्रह्मज्ञान की प्रौढ़ावस्था रूप नेत्रसे ब्रह्म साक्षात्कार हो जाने पर तो ब्रह्म में ही स्थित रहकर संपूर्ण विश्व को ब्रह्मरूप ही देखता है भिन्न नहीं । इससे सूचित होता है - ब्रह्मदृष्टि से ही सर्वत्र ब्रह्म भासने लगता है । उक्त प्रकार सत्संग करते हुये उक्त सातों भक्तों ने चाटसू में सात दिन तक उत्सव कराया था फिर चाटसू में जनगोपालजी के शिष्य और दादूजी के पौत्र शिष्य चैनरामजी दादूजी महाराज को काणोता लाने के लिये आये और प्रणामादि करके दादूजी महाराज को प्रार्थना की - आप यहां से काणोता पधारने की कृपा करें । दादूजी ने अपने पौत्र शिष्य चैनरामजी का निमंत्र्ण मान लिया फिर चाटसू से प्रस्थान करके शनैः शनैः ब्रह्म चिन्तन करते हुये काणोता के पास पहुंचे तब चैनरामजी आगे जाकर भक्त मंडल के सहित संकीर्तन करते हुये दादूजी को लेने आये और प्रणाम पूजादि करके ग्राम में ले गये । 
(क्रमशः)

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