गुरुवार, 5 जनवरी 2017

= विन्दु (२)८९ =



॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)** 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विन्दु ८९ =**

**= बसी पधारना =**
बसी के भक्तों ने दादूजी महाराज का अच्छा स्वागत किया । दादूजी महाराज ने भी सब साधक संतों के पारमार्थिक कार्य अपने उपदेशों द्वारा सिद्ध किये अर्थात् शंकायें निवृत्त की । प्रथम वहां के भक्त कान्हरदास और उनकी बहिन ने तीन दिन तक संत सेवा और सत्संग रूप लीलायें कराई । एक दिन सत्संग की समाप्ति पर कान्हरदास ने पूछा - स्वामिन् ! ब्रह्मात्मा का अभेद ज्ञान कब प्रकट होता है ? तब दादूजी ने कहा - 
**= कान्हरदास के प्रश्न का उत्तर =** 
"नख शिख सब सुमिरण करे, ऐसा कहिये जाप । 
अंतर विकसे आत्मा, तब दादू प्रकटे आप ॥" 
जब पैर के नख से मस्तक की शिखा पर्यन्त प्रत्येक रोम से स्मरण होने लगता है, तब वह ऐसा स्मरण ही परम जाप कहलाता है । इस परम जाप की सिद्धावस्था आते ही अन्तःकरण रूप आत्मा संशय विपर्ययादि दोषों से रहित होकर प्रफुल्लित होता है । उस प्रफुल्लित अन्तःकरण में अपने आप ही आत्मा और परमात्मा का अभेद ज्ञान प्रकट होकर ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है । फिर माताओं के समुदाय में बैठी हुई कान्हरदास की बहिन ने हाथ जोड़कर कहा - स्वामीजी महाराज ! आप लोक कल्याणार्थ यज्ञादिक कार्य क्यों नहीं करते हो ? उस माता का उक्त वचन सुनकर राम परायण संत दादूजी महाराज ने कहा - 
**= कान्हरदास की बहन के प्रश्न का उत्तर =**
"म्हारो मन माई ! राम नाम रँग रातो, 
पिव पिव करे पीव को जाने, मगन रहै रस मातो ॥ टेक ॥ 
सदा शील संतोष सुहावत, चरण कमल मन बाँधो । 
हिरदा मांहिं जातां कर राखूं, मानो रंक धन लाधो ॥ १ ॥ 
प्रेम भक्ति प्रीति हरि जानूं, हरि सेवा सुख दाई । 
ज्ञान ध्यान मोहन को मेरे, कंप न लागे काई ॥ २ ॥ 
संग सदा हेतु हरि लागो, अंग और नहीं आवे । 
दादू दीन दयालु दामोदर, सार सुधा रस भावे ॥ ३ ॥ 
प्रभु में अपना अखण्ड प्रेम दिखा रहे हैं - हे माई ! हमारा मन राम नाम के प्रेम में ही अनुरक्त रहता है । अन्य कार्य की इच्छा ही मन में नहीं होती है । प्रियतम प्रियतम करता रहता है, एकमात्र प्रियतम को ही जानता है । प्रियतम के चिंतन में ही निमग्न रहकर उसी के प्रेम - रस में मस्त रहता है । सदा ही शील संतोषादि दैवी गुण अच्छे लगते हैं । मन प्रभु के चरण - कमलों में ही बँधा रहता है । जैसे किसी रंक को धन मिल जाय तब उसे बड़े यत्न से रखता है, वैसे ही राम - नाम को यत्न से हृदय में रखता हूँ । मैं लौकिक प्रेम, नवधा भक्ति और प्रेमा भक्ति एक मात्र हरि को ही समझता हूं । हरि सेवा ही मुझे सुखप्रद है । मेरे हृदय में ज्ञान और ध्यान भी विश्व विमोहन भगवान् का ही है । इससे हृदय में मल - विक्षेप नहीं लग पाते हैं । सदा साथ रहने वाले हरि से ही मेरा प्रेम लगा है । मेरे हृदय में प्रेम - पात्र के रूप से अन्य कोई भी नहीं आता है । दीन - दयालु दामोदर भगवान् ही अमृत - सार के समान मुझे प्रिय लगते हैं । दादूजी महाराज का उक्त पद सुनकर सभी सत्संगी प्रभु - प्रेम में निमग्न हो गये । किसी को कुछ भी शंका नहीं उपजी । 
इति श्री दादूचरितामृत विन्दु ८९ समाप्तः । 
(क्रमशः)

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