शुक्रवार, 31 मार्च 2017

= विन्दु (२)९६ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)* 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९६ =*
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*= भक्ति दर्शन =* 
भक्ति दर्शन भी संकर्षण कांड से मिलता हुआ ही है, अतः उसका परिचय भी यहां देना उचित होगा, पथम नवधा भक्ति देखिये - 
“पहले श्रवण द्वितीय रसना, तृतीय हृदय गाय । 
चतुर्थी चिन्तन भया, तब रोम रोम ल्यौ लाय ॥” 
उक्त साखी में श्रवण, कीर्तन और स्मरण, इन तीनो भक्तियों का कथन है । 

*१ - श्रवण -* 
“जैसे श्रवणा दोय है, ऐसे होय अपार । 
राम कथा रस पीजिये दादू बारंबार ॥ 
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*२ - कीर्तन -* 
“ज्यों मुख रसना एक है, ऐसे होय अनेक । 
तो रस पीवें शेष ज्यूं, यूं मुख मीठा एक ॥” 
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*३ - स्मरण -* 
“दादू श्वासें श्वास संभालतां, इक दिन मिल हैं आय । 
सुमिरण पैंण्डा सहज का, सद्गुरु दिया बताय ॥’ 
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*४ - पाद सेवन -*
“आव पियारे मींत हमारे, 
निश दिन देखूँ पांव तुम्हारे ॥ टेक ॥ 
सेज हमारी पीव संवारी, 
दासी तुम्हारी सो धनवारी ॥ १ ॥ 
जे तुझ पाऊं अंग लगाऊँ, 
क्यों समझाऊं वारण जाऊं ॥ २ ॥ 
पंथ निहारूं बाट संवारूँ, 
दादू तारूं तन मन वारूं ॥ ३ ॥ 
साखी - 
मस्तक मेरे पांव धर, मंदिर मांहीं आव । 
सइयाँ सोवे सेज पर, दादू चंपै पाव ॥” 
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*५ - अर्चना -*
“आतम माँहीं राम है, पूजा ताकी होय । 
सेवा वन्दन आरती, साधु करैं सब कोय ॥ 
दादू देव निरंजन पूजिये, पाती पंच चढ़ाय । 
तन मन चन्दन चरचिये, सेवा सुरति लगाय ॥ 
दादूवाणी के पद ४४० से ४४४ तक पाँच आरती और सौंज मंत्र भी अर्चना भक्ति का सम्यक् प्रकार परिचय देते ही हैं । 
प्रसाद - 
“परमेश्वर के भाव का, एक कणूंका खाय । 
दादू जेता पाप था, भरम कर्म सब जाय ॥ 
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*६ - वन्दना -*
“परब्रह्म परात्परं, सो मम देव निरंजनम्। 
निराकारं निर्मलम् तस्य दादू वन्दनम् ॥” 
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*७ - दास्य -*
“तेरा सेवक तुम लगे, तुमही माथे भार । 
दादू डूबत रामजी, वेगि उतारो पार ॥” 
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*८ - सख्य -* 
“करणहार कर्ता पुरुष, हमको कैसी चिन्त । 
सब काहू की करत है, सो दादू का मिन्त ॥ 
प्रेम लहर की पालकी, आतम वैसे जाय । 
दादू खेले पीव से, यहु सुख कहा न जाय ॥ 
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*९ - आत्म निवेदन -* 
“तन भी तेरा मन भी तेरा, तेरा पिंड रु प्रान । 
सब कुछ तेरा तू है मेरा, यहु दादू का ज्ञान ॥ 
जीव पियारे राम को, पाती पंच चढ़ाय । 
तन मन मनसा सौंप सब, दादू विलम्ब न लाय ॥ 
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*= भक्ति की याचना =*
“भक्ति माँगूं बाप भक्ति मागूं, 
मूने ताहरा नाम नों प्रेम लागो । 
शिवपुर ब्रह्मपुर सर्व सौं कीजिये, 
अमर थावा नहीं लोक माँगूं ॥ टेक ॥ 
आप अवलम्बन ताहरा अंगनों, 
भक्ति सजीवनी रंग राचूं । 
देह्नैं गेहनौं बास वैकुन्ठ तणौ, 
इन्द्र आसण नहिं मुक्ति जाचूं ॥ १ ॥ 
भक्ति व्हाली खरी आप अविचल हरि, 
निर्मलों नाम रस पान भावे । 
सिद्धि नैं ऋद्धि नैं राज रुड़ो नहीं, 
देव पद म्हारे काज न आवे ॥ २ ॥ 
आत्मा अन्तर सदा निरन्तर, 
ताहरी बापजी भक्ति दीजे । 
कहै दादू हिवै कोड़ी दत्त आपै, 
तुम बिन ते अम्हें नहीं लीजे ॥ ३ ॥ 
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*= विरह =* 
“काया माँहीं क्यों रह्या, बिन देखे दीदार । 
दादू विरही बावरा, मरे नहीं तिहिं बार ॥ 
बिन देखे जीवे नहीं, विरह का सहिनाण । 
दादू जेवे जब लगे, तब लग विरह न जाण ॥” 
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*= प्रेमा भक्ति =* 
“प्रीति जु मेरे पीव की, पैठी पिंजर माँहिं । 
रोम रोम पिव पिव करे, दादू दूसर नाहिं ॥ 
दादू मारे प्रेम से, बेधे साधु सुजाण । 
मारण हारे को मिले, दादू विरही बाण ॥ 
प्रीतम मारे प्रेम से, तिनको क्या मारे । 
दादू जारे विरह के, तिनको या जारे ॥ 
दादू अक्षर प्रेम का, कोई पढ़ेगा एक । 
दादू पुस्तक प्रेम बिन, केते पढ़ैं अनेक ॥ 
दादू पाती प्रेम की, विरला बांचे कोय । 
वेद पुराण पुस्तक पढ़ै, प्रेम बिना क्या होय ॥ 
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*= पराभक्ति =* 
“राम तू मोरा हौं तोरा, पाइन परत निहोरा ॥ टेक ॥ 
एकैं संगैं वासा, तुम ठाकुर हम दासा ॥ १ ॥ 
तन मन तुम को देवा, तेज पुंज हम लेवा ॥ २ ॥ 
रस माँहीं रस होइबा, ज्योति स्वरूपी जोइबा ॥ ३ ॥ 
ब्रह्म जीव का मेला, दादू नूर अकेला ॥ ४ ॥ 
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*= चतुर्मुक्ति =* 
“सालोक्य संगति रहै, सामीप्य सन्मुख सोय । 
सारूप्य सारिखा भया, सायुज्य एकै होय ॥” 
(क्रमशः)

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