#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= अथ विन्दु ९४ =*
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*= रज्जबजी का बल अभिमान भंग करना =*
एक दिन नारायणा धाम में दादूजी महाराज एक काष्ठ की चौकी पर स्नान करके पास खड़े हुए अपने शिष्य रज्जबजी को बोले - “रज्जब ! मेरी खड़ाऊ ले आओ जिससे पैर धूलि में नहीं हों ।” तब रज्जबजी ने हाथ जोड़कर कहा - “गुरुदेव ! आप चौकी पर ही विराजे रहैं । मैं चौकी सहित आपको आसन पर ले चलूंगा ।” दादूजी ने कहा - “नहीं खड़ाऊ ही ले आओ ।” किन्तु रज्जबजी ने अधिक आग्रह किया ।
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तब दादूजी ने सोचा इन्हें बल का घमंड है, ये खाटू ग्राम में भी मतवाले हाथी को हटाने के लिए आगे बढ़ने लगे थे । घमंड साधक में होना अच्छा नहीं है, यह महान् दोष है और मेरा कर्तव्य है कि इनका यह दोष निकालूं । अतः आज इनका घमंड तोड़ ही देना चाहिए । फिर दादूजी महाराज मौन होकर चौकी पर ही विराज गये । तब रज्जबजी अपने दोनों हाथों से चौकी को इस प्रकार पकड़कर उठाने लगे जिससे गुरुदेव दादूजी महाराज को किसी प्रकार का विक्षेप नहीं हो । फिर रज्जबजी ने अपना सब बल लगा दिया किन्तु चौकी उठना तो दूर रहा एक तिल भर भी नहीं हिली ।
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रज्जबजी ने सोचा था गुरुदेवजी का शरीर तो कृश है, इनमें बोझा है ही कहां ? मैं तो अनायास ही उठा लूंगा । किन्तु जब चौकी हिली भी नहीं, तब वे समझ गये यह गुरुजी की ही लीला है । मैंने अधिक आग्रह किया और गुरुजी की आज्ञा नहीं मानी अतः मेरे बल के अभिमान को गुरुजी ने नष्ट करके मेरे पर महान् कृपा की है । अभिमान किसी भी बात का हो अच्छा नहीं होता । यह विचार कर चौकी छोड़ हाथ जोड़कर नम्र भाव से बोले -
*- सवैया -*
“हिले न चले१ न पिले२ न डिले३,
ऐसो रोपि रह्यो बल बंड४ बिहारी ।
अटै५ न मिट्यो न बट्यो६ न लुट्यो,
अजु७ माया रु मान गये पचिहारी ॥
हिलायो चलायो डुलायो न डोलहि,
देखहु साधु सुमेर से भारी ।
हैं दादूजी साधू आदि अनादि शिरोमणि,
रज्जब देखि भयो बलिहारी ॥”
कामादि से हिलते नहीं हैं, आशा से चंचल१ नहीं होते हैं । कर्म के धक्के से तथा दुर्जन के ढकेलने२ से अपनी निष्ठा से हटते३ नहीं हैं । ज्ञान - बल के बली४ हैं, पृथ्वी पर विचरते हैं किन्तु इस समय तो चौकी को पृथ्वी में रोपकर ऐसे स्थित हैं कि हिलाने से हिलते भी नहीं हैं । चलाने से चलते नहीं हैं और डुलाने से डुलते नहीं हैं । हे संत जनो ! देखो तो सही ये गुरुदेव दादूजी तो सुमेर से भी भारी हो गये हैं । ये जन्मादि संसार में भ्रमण५ नहीं करते हैं, काल के द्वारा मिटते नहीं हैं । इनका मन विषयों में वितरित६ नहीं होता है । इन के ज्ञान धन को कामादि नहीं लूट सके हैं । अजी७ देखो, इनको जीतने के लिये माया और अभिमान पचकर इनसे हार गये हैं । हे संत जनो ! ये दादूजी तो सबके आदि अनादि सबके शिरोमणि ब्रह्म स्वरूप ही हैं । मैं इस समय इनकी महान् शक्ति देखकर इन पर बलिहारी जाता हूँ ।
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यह कहकर रज्जबजी ने दंडवत की फिर चुपचाप जाकर खड़ाऊ ले आये और चरणों में पहना कर क्षमा माँगते हुये चरणों में पड़ गये, तब दादूजी ने उनके शिर पर अपना वरद हस्त रखकर उनको उठाया और कहा - तुम्हारे को अपने बल का अभिमान था, वह अच्छा नहीं था, परमात्मा ने कृपा करके वह तोड़ दिया है । यह अच्छा ही हुआ है । तब रज्जबजी ने मस्तक नमाते हुये कहा - आप यथार्थ ही कहते हैं । आपने उक्त लीला कर के मेरा हित ही किया है । फिर वे प्रणाम करके अपने आसन पर चले गये और अपना दैनिक साधन करने लगे ।
(क्रमशः)
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