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॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९४ =*
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पूर्व काल के संत जब जाने का विचार करने लगे तब दादूजी महाराज ने उन सब संतों का समादर करते हुये कहा -
“दादू मम शिर मोटे भाग, साधों का दर्शन किया ।
कहा करे यम काल, राम रसायन भर पिया ॥ १ ॥”
आज मैं मेरे विशाल भाग्योदय से इन ब्रह्म स्वरूप संतों का दर्शन कर सका हूँ और इनके वचनों में स्थित परिपूर्ण रामस्वरूप रसायन का मन भर अर्थात् इच्छानुसार पान भी किया है । इस प्रकार संत वचनामृत पान करने वाले सज्जनों का काल रूप यम भी क्या कर सकता है ? अर्थात् यम उनको मार नहीं सकता है, वे तो ब्रह्म के स्वरूप में ही लय होते हैं ।
पूर्व शरीर को छोड़ अन्य शरीर में जाने को ही मरण कहते हैं, वे तत्त्व वेत्ता अन्य शरीर को प्राप्त नहीं होते हैं । उनका आत्मा ब्रह्म में लय होता है और मायिक शरीरादि अपने - अपने कारण में लय हो जाते हैं । ज्ञान से संचित कर्म और भोग से प्रारब्ध नष्ट हो जाते हैं । ज्ञान से उत्तर आगामी कर्म कर्तृत्व भावना नहीं होने से नहीं होते हैं । कर्म के अभाव में आगे शरीर नहीं बनता है । यह तात्पर्य है । इसीलिये ज्ञानी का पुनर्जन्म नहीं होता है । फिर आगत संतों का विशेष समादर करने के लिये दादूजी महाराज ने यह पद बोला -
*= संत दर्शन से मंगल =*
आज हमारे रामजी साधु घर आये,
मंगलाचार चहुँ दिशि भये, आनन्द बधाये ॥ टेक ॥
चौक पुराऊं मोतियां, घिस चन्दन लाऊं ।
पंच पदारथ पोइकर, यह माल चढ़ाऊं ॥ १ ॥
तन मन धन करूं वारने, प्रदक्षिणा दीजे,
शीश हमारा जीव ले, न्यौछावर कीजे ॥ २ ॥
भाव भक्ति कर प्रीति से, प्रेम रस पीजे ।
सेवा वन्दन आरती, यहु लाहा लीजे ॥ ३ ॥
भाग हमारा हे सखी, सुख सागर पाया ।
दादू को दर्शन भया, मिले त्रिभुवन राया ॥ ४ ॥
संतों के दर्शन होने वाले मंगल का परिचय दे रहे हैं -
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आज हमारे संत रूप रामजी घर पर पधारे हैं ।
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इस कारण चतुष्टय अन्तःकरण रूप चारों ही दिशाओं में तथा इन्द्रियादि में आनन्द की वृद्धि हुई है ।
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हम मोतियों से चौक पूरते हैं, चंदन घिस के लगाते हैं । अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष और परम इन पांचों पदार्थों से व पंच विरक्ति रूप पांच पदार्थों की माला बनाकर संतों के चढ़ाते हैं ।
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तन, मन, धन निछावर करके प्रदिक्षिणा देते हैं तथा हमारा शिर और जीव भी लीजिये हम आप पर निछावर करते हैं ।
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हम भाव और प्रेमाभक्ति से प्रेम - रस का पान करते हुये सेवा, वन्दना और आरती करना रूप यह महान् लाभ ले रहे हैं ।
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हे मति सखि ! हमारा महान् भाग्य था जिससे सुख - सागर रूप संतों का दर्शन प्राप्त हुआ है । हमको इन संतों का दर्शन प्राप्त हुआ है तब से ऐसा ज्ञात होता है कि मानो त्रिभुवन के राजा परब्रह्म ही मिल गये हैं । इनके दर्शन से होने वाले आनन्द का किसी प्रकार कथन नहीं हो सकता ।
(क्रमशः)
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