卐 सत्यराम सा 卐
गुरु पहली मन सौं कहै, पीछे नैन की सैन ।
दादू सिष समझै नहीं, कहि समझावै बैन ॥
कहै लखै सो मानवी, सैन लखै सो साध ।
मन लखै सो देवता, दादू अगम अगाध ॥
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साभार ~ Nishi Dureja
*!! जो मेरे योग्य हो, कह दें !!*
बुद्ध के जीवन में उल्लेख है -
एक फकीर मिलने आया। एक साधु मिलने आया। एक परिव्राजक घुमक्कड़। उसने आकर बुद्ध से कहा : ‘पूछने योग्य शब्द मेरे पास नहीं। क्या पूछना चाहता हूं उसे शब्दों में। बांधने की मेरे पास कोई कुशलता नहीं। आप तो जानते ही हैं, समझ लें। जो मेरे योग्य हो, कह दें।’
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*यह ज्ञानी की जिज्ञासा है।*
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बुद्ध चुप बैठे रहे, उन्होंने कुछ भी न कहा। घड़ी भर बाद, जैसे कुछ घटा! वह जो आदमी चुपचाप बैठा बुद्ध की तरफ देखता रहा था, उसकी आंख से आंसुओ की धार लग गई, चरणों में झुका नमस्कार किया और कहा, ‘धन्यवाद! खूब धन्यभागी हूं! जो लेने आया था, आपने दिया।’ वह उठकर चला भी गया। उसके चेहरे पर अपूर्व आभा थी। वह नाचता हुआ गया।
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बुद्ध के आसपास के शिष्य बड़े हैरान हुए। आनंद ने पूछा, ‘भंते! भगवान! पहेली हो गई। पहले तो यह आदमी कहता है कि मुझे पता नहीं कैसे पूछूं - पता नहीं किन शब्दों में पूछूं - यह भी पता नहीं क्या पूछने आया हूँ आप तो जानते ही हैं सब; देख लें मुझे; जो मेरे लिए जरूरी हो, कह दें। पहले तो यह आदमी ही जरा पहेली था..
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यह कोई ढंग हुआ पूछने का ! और जब उसे यही पता नहीं कि क्या पूछना है तो पूछना ही क्यों ? पूछना क्या ? खूब रही ! फिर यहीं बात खत्म न हुई; आप चुप बैठे सो चुप बैठे रहे ! आपको ऐसा कभी मौन देखा नहीं; कोई पूछता है तो आप उत्तर देते हैं। कभी - कभी तो ऐसा होता है कि कोई नहीं भी पूछता तो भी आप उत्तर देते हैं। आपकी करुणा सदा बहती रहती है। क्या हुआ अचानक कि आप चुप रह गये और आंख बंद हो गई ? और फिर क्या रहस्यमय घटा कि वह आदमी रूपांतरित होने लगा।
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हमने उसे बदलते देखा। हमने उसे किसी और ही रंग में डूबते देखा। उसमें मस्ती आते देखी। वह नाचते हुए गया है - आंसुओ से भरा हुआ, गदगद, आह्लादित ! वह चरणों में झुका। उसकी सुगंध हमें भी छुई। यह हुआ क्या? आप कुछ बोले नहीं, उसने सुना कैसे ? और हम तो इतने दिनों से, वर्षों से आपके पास हैं, हम पर आपकी कृपा कम है क्या ? यह प्रसाद, जो उसे दिया, हमें क्यों नहीं मिलता ?’
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बुद्ध ने कहा, ‘सुनो। तुम्हें भी मिलता है ... लेकिन ध्यान रहे, उतना ही मिलता है जितना तुम ले सकते हो।’ आनंद से घोड़े की बात की, क्योंकि आनंद क्षत्रिय था, बुद्ध का चचेरा भाई था और बचपन से ही घोड़े का बड़ा शौक था उसे, घुड़सवार था। प्रसिद्ध घुड़सवार था, प्रतियोगी था बड़ा उन्होंने कहा, ‘सुन आनंद !’ बुद्ध ने कहा : ‘घोड़े चार प्रकार के होते हैं।’
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एक तो मारो भी तो भी टस से मस नहीं होते। रईस घोड़े ! जितना मारो उतना ही हठयोगी हो जाते हैं, बिलकुल हठ बांध कर खड़े हो जाते हैं। तुम मारो तो वे जिद्द बना लेते हैं कि देखें कौन जीतता है !
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फिर दूसरे तरह के घोड़े होते हैं. मारो तो चलते हैं, न मारो तो नहीं चलते। कम से कम पहले से बेहतर।
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फिर तीसरे तरह के घोड़े होते हैं : कोड़ा फटकारने से, मारना जरूरी नहीं। सिर्फ कोड़ा फटकारो, आवाज काफी है। और भी कुलीन होते हैं - दूसरे से भी बेहतर।
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फिर आनंद, तुझे जरूर पता होगा ऐसे भी घोड़े होते हैं कि कोड़े की छाया देख कर भागते हैं, फटकारना भी नहीं पड़ता। यह ऐसा ही घोड़ा था। छाया काफी है।’
... जय हो ...
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