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卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मन का अँग १०*
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सोई शूर जे मन गहै, निमष न चलने देइ ।
जब ही दादू पग भरे, तब ही पाकड़ लेइ ॥ ७ ॥
जो विषयों में जाते हुये मन को विषयों का मिथ्यात्व और भगवद् भजन का लाभ दिखाकर भगवत् स्मरण द्वारा ग्रहण कर लेता है तथा भगवत् स्वरूप से एक पलक भी दूर नहीं जाने देता, कदाचिद् विषयों की ओर वासना - पैर उठाता भी है, तो उसी क्षण अनासक्ति रूप हाथ से पकड़ लेता है, वही साधक वीर माना जाता है ।
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जेती लहर समुद्र की, ते ते मनहि मनोरथ मार ।
बैसे सब सँतोष कर, गह आतम एक विचार ॥ ८ ॥
८ - १० में मनोनिग्रह का उपाय कह रहे हैं - जैसे समुद्र की लहरें अपार हैं वैसे ही मन के मनोरथ अपार हैं । उन सब मनोरथों को मार कर, सँतोष और ब्रह्म विचार द्वारा अद्वैत आत्म स्वरूप ब्रह्म को ग्रहण करके बैठता है - ब्रह्म भिन्न वृत्ति नहीं होने देता, तब ही मन निरुद्ध होता है ।
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दादू जे मुख माँहीं बोताँ, श्रवणहुं सुनतां आइ ।
नैनहुं मांहीं देखतां, सो अंतर उरझाइ ॥ ९ ॥
जो वाक् इन्द्रिय रूप मुख में आकर यथा योग्य बोलता है, श्रवण इन्द्रिय में आकर सम्यक् सुनता है, नेत्र इन्द्रिय में आकर देखता है, जिसके बिना इन्द्रियाँ अपना काम करने में समर्थ नहीं होतीं, वही मन है । उसे ही अन्तरात्मा में लगा । ऐसा अभ्यास करने से मन निरुद्ध होगा ।
(क्रमशः)
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