रविवार, 26 मार्च 2017

= १५२ =


卐 सत्यराम सा 卐
दादू मरणा खूब है, मर माहीं मिल जाइ ।
साहिब का संग छाड़ कर, कौन सहै दुख आइ ॥ 
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

तुम दैदीप्यमान हो उठो........ तो तुम्हारी किरणें दूसरों को बुला लाएंगी। दूर-दूर से लोग चले आएंगे - तुम्हारे झरने पर पानी पीने; अपनी प्यास बुझाने। कुछ ऐसा करो कि तुम्हें तो रस मिले ही मिले - औरों को भी रस मिल जाए। कुछ ऐसा करो कि परमात्मा तुमसे बह उठे।
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और जब आदमी ऐसी जगह आ जाता है, जहां सोचने लगता है कि अब खतम ही कर लूं अपने को...। जरूर तुमने सोचा होगा बहुत बार कि अब अपने को मिटा ही लूं, क्योंकि अब जीवन तो है ही नहीं। रस नहीं है। जीए जा रहा हूं। क्या सार है जीने में ! खतम ही क्यों न कर लूं?
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जब खतम करने तक की तैयारी हो, तो इसके पहले एक काम और कर लो, फिर खतम कर लेना। इसके पहले एक काम यह तो कर लो--जान तो लो कि मैं कौन हूं। फिर आत्महत्या करनी हो, तो आत्महत्या कर लेना। हालांकि जिसने अपने को जाना है, उसने कभी आत्महत्या नहीं की है। क्योंकि वह तो जानता है - आत्महत्या हो ही नहीं सकती। आत्मा अमर है। मिटाओ तो भी मिट नहीं सकती। जलाओ, तो भी जल नहीं सकती।
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और इस शाश्वत को पहचानते ही अपूर्व घटनाएं घटती है। चमत्कार घटते हैं। जादू जीवन में आ जाता है। तुम मिट्टी छुओ और सोना हो जाएगी। तुम कांटा छुओगे और फूल हो जाएगा। यह सारा अस्तित्व परमात्मा से जगमगा उठता है। तुम जगमगा जाओ भीतर, तो बाहर दीए ही दीए जल जाते हैं। जल ही रहे हैं। सिर्फ तुम अंधे हो, इसलिए दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। और चारों तरफ से रस तुम्हारी तरफ बहने लगता है। तुम बहो - फिर देखो।
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यह संकट की घड़ी है, इसका उपयोग कर लो। मेरे हिसाब से संकट की घड़ियां बड़े सौभाग्य की घड़ियां होती हैं। समझदार उनको वरदान बना लेते हैं। नासमझ - उनको अभिशाप। सब तुम पर निर्भर है।
आज इतना ही।

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