सोमवार, 20 मार्च 2017

= १४० =


卐 सत्यराम सा 卐
दादू मनसा वाचा कर्मणा, साहिब का विश्वास ।
सेवक सिरजनहार का, करे कौन की आस? 
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!! श्री शारदा - चन्द्रमौलीश्वराय नमः !!
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॥ श्रीमद्भगवद्गीता के - कर्मप्रशंसायोग ॥
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नारायण ! भगवान् के श्रीमुख कहते हैं "अस्य तौ परिपन्थिनौ" । पुरुष के, साधक के परिपन्थी हैं राग और द्वेष। "परिपन्थी" अर्थात् रास्ते रोकने वाले, उस रास्ते पर जो तुम्हें चलने नहीं देते । ये ही सबसे ज्यादा विघ्न हैं । जैसे, डाकू, रास्ते को रोक कर तुमको लूट लेते हैं, इसी प्रकार राग - द्वेष तुमको शास्त्र के रास्ते पर चलने से रोक कर तुम्हारे स्वरूप को लूट कर और तुम्हें अधर्म के गड्ढे में डालकर पाप के दंडे खिलवाते हैं । इसलिये भगवान् ने इनको परिपन्थी कहा है । ये जीव को कल्याण के रास्ते नहीं जाते देते । राग - द्वेष का कारण क्या होता है ? इससे ग्रस्त व्यक्ति शास्त्र पढ़े तो शास्त्र को भी अन्यथा समझने लगता है । राग - द्वेष हमको शास्त्र के भी अर्थ को उल्टा प्रतीत करवा देते हैं । 
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जितने तुम्हारे सुधारवादी हैं, उन सब का यही कहना है कि शास्त्र का वह मतलब नहीं जो सम्प्रदायसिद्ध है क्योंकि हमारी बुद्धि के अनुकूल नहीं पड़ता ! हमारी जो बुद्धि या तर्क है, उसके अनुसार जो बात सुख देने वाली नहीं है शास्त्र का अर्थ नहीं ! इसका एक मोटा दृष्टान्त देते हैं : सब लोगों को पता है कि अनादिकाल से अपने यहाँ वर्ण - व्यवस्था है । सुधारवादी अपनी बुद्धि लड़ाते हैं कि "मुसलमान, ईसाइयों के अन्दर वर्ण - व्यवस्था नहीं है तो वे मिल कर काम कर लेते हैं । शास्त्र की जो वर्ण व्यवस्था है, इसके कारण ही हम लोगों में इतने भेद हो गये, समाज टुकड़े - टूकड़े हो गया । समाज का उत्थान करने के लिये, शास्त्र का मतलब कुछ और करना चाहिये ।" 
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वर्ण - व्यवस्था का उद्देश्य क्या है ? बड़ी सीधी - सी बात है मैं जहाँ पैदा हुआ, उसने निश्चित कर दिया कि मुझे क्या करना है । मुझे ढूँढना नहीं है कि मुझे क्या करना है । भगवान् ने मुझे उस घर में पैदा इसलिये किया कि मैं उस काम को आगे करूं । यदि तुम कहते हो कि जो पढ़ने में अच्छा हो, वह ब्राह्मण इत्यादि ; तो सोचो, पढ़ने में तत्पर होगा कौन ? किसी के मन में "पढ़ना मेरा कर्तव्य है, धर्म है" यह भाव रहेगा नहीं और योग्य - अयोग्य का पता तो चलेगा काफी पढ़ने के बाद । ऐसी परिस्थिति में पढ़ना प्रारम्भ कौन करेगा ? और कितना समय बिताकर निर्णय होगा कि पढ़ाई में अच्छा है या नहीं ? ऐसे ही क्षात्रकर्म, वैश्यकर्म आदि सभी में प्रवृत्ति प्रारम्भ करेगा कौन और क्यों ? इस ढंग में कितना समय लगेगा इस निर्णय में ही कि कौन किसमें अच्छा है ? तब उसमें विशेषज्ञता हासिल करेगा, तब कहीं जाकर कुछ कार्य कर पायेगा । अत्यन्त अव्यवस्था और परस्पर प्रतिद्वन्द्विता ही बढ़ेगी । 
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जब जन्मतः पता है कि मुझे क्या करना है, तब प्रारम्भ से ही उसी में लग सकता हूँ, और योग्यता की कमी मेहनत से काफी हद तक पूरी कर सकता हूँ । दृष्टान्त से समझो : मुझे किस देश की सेवा करनी चाहिये ? अगर यह कह दिया जाय, कि "तुमको जो देश अच्छा लगे, उस देश के अनुसार तुम काम करना", तो क्या देश - भक्ति का कोई स्थान रह जायेगा? हमें पता है कि हम यहाँ पैदा हुए इसलिये यहाँ के हैं । तब तो इसी देश का हमें काम करना है । नहीं तो कभी हम सोचे कि रूस अच्छा है, रूस की भक्ति करें, फिर कोई कहेगा कि अमेरिका अच्छा है, तो हमें लगेगा अमेरिका की भक्ति करें ! कभी निर्णय पर पहुँच सकेंगे ? इसी प्रकार, मेरा काम क्या, मुझे क्या गुण प्राप्त करने हैं ये मेरे लिये निर्णीत हो गये जन्म से, जैसे देश - भक्ति जन्म से निर्णीत हो जाती है । तभी तत्परता से उसी काम को करने में मैं लग जाऊँगा क्योंकि मुझे निश्चित पता है कि मुझे क्या करना है । अन्यथा, अपने कर्तव्य का चुनाव काहे से करोगे ? राग - द्वेष से करोगे । परिश्रम का काम कोई नहीं चाहेगा, बाबूगिरी करना सब चाहेंगे क्योंकि राग - द्वेष से निर्णय करेंगे कि क्या करना है । 
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सुधारवादी मुसलमानों की एकता तो देखते हैं, यह नहीं देखते कि विद्या आदि के क्षेत्र में कितने पिछड़े ही रहते हैं ! अगर उनमें अनुकरण से कोई पुण्य आयेगा तो दोष भी आयेंगे ही । वे नये दोष क्या वर्तमान स्थिति से बेहतर होंगे ? यों वे विचार नहीं करते क्योंकि शास्त्र दृष्टि के बजाय राग - द्वेष से चलते हैं ।
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इसी दृष्टि से सनातनी कभी किसी के धर्म को बदलता नहीं । हम लोग यह मानते हैं कि भगवान् ने जिसको जहाँ पैदा किया, वह अपना वही धर्म माने । सुधारवादी कहते हैं "आप दूसरों को हिन्दू बनाते नहीं, इसीलिये तो आपकी संख्या कम हो रही है !" किसी को हिन्दू बनाओ का मतलब यह है कि "हमें पता है कि भगवान् ने उसे मुसलमान घर में पैदा करके गलती कर दी है । मैं बुद्धिमान हूँ, भगवान् की तरह बेवकूफ थोड़े हैं ! उसको सुधारूँगा ।" इसलिये सुधारवादी दृष्टि राग - द्वेष वाली होने से श्रद्धेय नहीं है । दृष्टि वह रखनी पड़ेगी जो शास्त्र दे रहा है । शास्त्र का तात्पर्य पता लगाना चाहिये, अपने मतानुसार शास्त्र का अर्थ नहीं लगा लेना चाहिये ।
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नारायण ! राग - द्वेषवश ही अर्जुन को युद्ध जो स्वधर्म था, उसकी जगह भिक्षावृत्ति से जीवनयापन बेहतर लग रहा था । अतः भगवान् समझाते हैं :
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
अर्थात् कुछ अंग कम भी किये जा सकें तो भी अपना धर्म पालन करना बेहतर है बजाये अच्छी तरह सम्पादित दूसरे के धर्म से । अपने धर्म पर रहते मरना भी अच्छा है, दूसरे के धर्म का अनुसरण भयप्रद ही है ।
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नारायण ! जो तुम्हें प्राप्त है वह हुआ तुम्हारा स्वधर्म । हमें एक काणी और लंगड़ी माँ प्राप्त है । पड़ोसी की बड़ी सुन्दर, अच्छी आँखों वाली, हिरणी की तरह चलने वाली औरत है । क्या उसी को मैं माँ मान लूँगा ? काणी, लंगड़ी को माँ मान कर मैं क्यों सेवा करूँ ? माँ के लिये चाहे तुम लोग अब तक यह बात नहीं कहते हो, लेकिन पत्नियों के लिये कह देते हो । बुरा मत मानना । इसी के आधार पर तलाक और पुनर्विवाह का झंझट है । मेरे चुनाव पर नहीं, जन्म पर निर्भर है कि यह मेरी माँ है, इसकी सेवा करना मेरा धर्म है । वह दूसरे की माँ है । उसकी सेवा करना मेरा धर्म नहीं है । माँ ही की तरह, पत्नी के बारे में समझ लो यह मेरी पत्नी है । इसलिये मुझे इसके साथ प्रेम से निर्वाह करना है । वह दूसरे की पत्नी है, इसलिये उसके साथ पति - भाव नहीं करना है । जो मुझे स्वभाव से प्राप्त मेरा कर्तव्य है, वह स्वधर्म है । वही कल्याणकारी है । प्रश्न होता है कि "यदि स्वधर्म अच्छी तरह न कर सकूँ तो क्या करूँ ?" 
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ब्राह्मण पढ़ने में अतिमंद हो तो क्या उसे खेती आदि में नहीं लग जाना चाहिये ? स्वधर्म को त्यागने का यही आधार बनता है । इसके जवाब में भगवान् कहते हैं बिना गुण के अर्थात् अपूर्ण, गड़बड़ भी किया हुआ स्वधर्म तुम्हारे लिये कल्याणकारी ही है । नहीं पढ़ सकते हो तब भी पढ़ते ही रहो, वही तुम्हारा कल्याण करेगा । जैसा पढ़ने में वैसा ही सभी प्राप्त धर्मों में समझ लेना । मैं चाण्डाल के घर पैदा हुआ हूँ । शास्त्र कहता है कि चाण्डाल यदि मंन्दिर के ध्वज का दर्शन करता है तो उसको वही फल हो जाता है जो ब्राह्मण को मन्दिर के अन्दर जाकर पूजा करने का होता है । मैं चाण्डाल हूँ, मैं ध्वजा का ही दर्शन करता हूँ । 
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सुधारवादी कहते हैं "अरे ! यह कोई बात है ? बाह्मण अन्दर जाकर पूजा कर सकता है तो तुम क्यों नहीं कर सकते ? "विचारशील कहता है मन्दिर में मूर्ति की पूजा करनी चाहिये यह कैसे पता चला ? इसमें कोई प्रत्यक्षादि प्रमाण है नहीं, शास्त्र मानकर ही पता चलता है । वही शास्त्र जो व्यवस्था दे रहा है उसी के अनुसार पुण्य - पाप भी मानने होंगे । आधी बात शास्त्र की और बाकी मन - मानी करने में लाभ की कोई संभावना नहीं, हानि की ही संभावना है। इसलिये सर्वांगपूर्ण न कर सके तो भी स्वधर्म ही करे, वही कल्याण का उपाय है । ठीक प्रकार से अनुष्ठान करने में असमर्थ हो, तो भी अपना धर्म ही कल्याणकारी है ।
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नारायण ? किसकी अपेक्षा ? "स्वनुष्ठितात् परधर्मात् ।" सु अनुष्ठित अच्छी प्रकार से अनुष्ठान किया हुआ जो परधर्म, उसकी अपेक्षा आधा - अधूरा भी स्वधर्म ही श्रेयस्कर है। यह तभी होगा जब पहले राग - द्वेष से हटो । नहीं तो असूया करोगे कि भगवान् ने बड़ा भेद - भाव कर दिया ! भगवान् पर अच्छी भावना होगी तो कहोगे "भगवान् ने ऐसा नहीं कहा होगा, यह तो लोगों ने लिख दिया । शास्त्र में लोगों ने मिला दिया होगा ।" बहुत से लोग कहते हैं "प्रक्षेप" हो गया होगा अर्थात् किसी ने जोड़ दिया होगा । यह सब तभी जब शास्त्र में कही बात अपने मन की नहीं होती । 
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भगवान् ने स्पष्ट कह दिया, दूसरे के धर्म को तुम खूब अच्छी तरह कर सको, तब भी उसकी अपेक्षा स्वधर्म करना ही श्रेयस्कर है । इसी बात को भगवान् भाष्यकार शङ्कर स्वामी ने सूत्रभाष्य में कहा है कि 
"यो हि यं प्रति विधीयते स तस्य धर्मः, 
न तु यो नेन स्वनुष्ठातुं शक्यते, 
चोदनालक्षणत्वाद् धर्मस्य" 
{ब्रह्मसूत्र शाङ्करभाष्यम् 3, 4, 40} 
जिसका जिसके लिये विधान किया गया, वही उसका धर्म है । कोई किसी काम को अच्छी तरह से कर सकता है, इतने मात्र से वह उसका धर्म नहीं हुआ करता क्योंकि धर्म में शास्त्रविधि ही प्रमाण है । संसार के व्ववहार में भी तुम यह मानते हो : मैं बहुत अच्छी व्यूह - रचना कर सकता हूँ फौज में, लेकिन हूँ कैप्टन ! ब्रिगेडियर व्यूह - रचना करता है । मैं कहता हूँ "अरे ! तुमको नहीं आती करनी, मैं करूँगा । मैं बढ़िया व्यूह - रचना करने वाला हूँ ।" तो ब्रिगेडियर कहेगा, "इसको पकड़ कर बंद कर दो !" जो तुमको काम दिया गया है वह तुम करो यही सर्वत्र उचित माना जाता है । इसलिये भगवान् कहते हैं कि स्वधर्म विगुण कर सको तो भी वही करो । बिल्कुल स्पष्ट करके कह दिया, जिसमें आज का भी कोई सुधारवादी इस सब को बदल नहीं सके। जो तुम अच्छी तरह से नहीं कर सकते हो, वह भी जो तुम अपना धर्म करते हो, वह जो खुब अच्छी तरह से अनुष्ठित कर सकते हो, उस परधर्म से अच्छा है । सावशेष ......
नारायण स्मृतिः

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