गुरुवार, 30 मार्च 2017

= मन का अंग =(१०/१०-२)


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*मन का अँग १०*
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दादू चुम्बक देखि कर, लोहा लागे आइ । 
यों मन गुण इन्द्री एक सौं, दादू लीजे लाइ ॥ १० ॥ 
जैसे चुम्बक पत्थर को समीप देख कर उसके आस पास का लोहा उसी के आकर लग जाता है वैसे ही गुरु उपदेश के द्वारा आत्मा के स्वरूप को जान कर मन और मन के गुण मननादि तथा इन्द्रियादि सभी को अद्वैत आत्मा के स्वरूप में ही लगा देना चाहिए । ऐसा करने से मन निरुद्ध हो जाता है । 
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मन का आसन जे जिव जाने, तो ठौर ठौर सब सूझे । 
पँचों आनि एक घर राखे, तब अगम निगम सब बूझे ॥ ११ ॥ 
११ - १२ में मन स्थिरता पूर्वक ज्ञान का फल बता रहे हैं - यदि मन के आश्रय रूप आसन आत्म स्वरूप ब्रह्म को जीव जान जाय तो प्रत्येक स्थान की सभी वस्तुओं में उसे ब्रह्म ही भासने लगता है और पँच ज्ञानेन्द्रियों को उनके विषयों से लौटा कर एक अद्वैत ब्रह्म - परायण ही रख सके तब तो, मन इन्द्रियों के अविषय, वेद के सर्वस्व ब्रह्म विषयक सभी रहस्य समझने लगता है । 
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बैठे सदा एक रस पीवे, निर्वैरी कत झूझे । 
आत्म राम मिले जब दादू, तब अँग न लागे दूजे ॥ १२ ॥
जब मन स्थिर होकर सदा एक अद्वैत ब्रह्म चिन्तन - रस का पान करता है, तब वह स्वस्वरूप ब्रह्म को जानकर निर्वैरी हो जाता है । अत: कहीं किसी से भी शास्त्र विषयक वादविवाद रूप युद्ध नहीं करता । जब आत्म स्वरूप राम की प्राप्ति हो जाती है, तब उसका मन द्वैत के स्वरूप में तो लगता ही नहीं ।
(क्रमशः)

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