रविवार, 26 मार्च 2017

= विन्दु (२)९६ =

#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)* 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= अथ विन्दु ९६ =*
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श्री दादूवाणी में वेदादि शास्त्र सूत्र रूप में हैं । वेदः - वेद ऋग, साम, यजु, अथर्व चार हैं, ये त्रिकांड रूप हैं, इनमें कर्म, उपासना और ज्ञान ये तीन कांड हैं । वेदों का ब्राह्मण भाग प्रधान तथा कर्म मार्ग की, आरण्यक भाग उपासना की और उपनिषद् भाग ज्ञान मार्ग की व्याख्या करता है । वे ही दादूवाणी में भी तीनों कांड हैं । 
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*कर्मकांड -*
“दादू कोई काहू जीव की, करे आतमा घात । 
सांच कहूँ संशय नहीं, सो प्राणी दोखज जात ॥” 
उक्त साखी में परपीड़न का फल नरक बताया है, इससे इसका तात्पर्य निषेध में हैं । 
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*अहिंसा -*
“सूखा सहजैं कीजिये, नीला भाने नांहिं । 
काहे को दुख दीजिये, साहिब है सब मांहिं ॥” 
उक्त साखी में हरा दाँतुन तोड़ने का निषेध किया है । इससे हिंसा प्रदान सभी कुकर्मों का निषेध सूचित होता है । 
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*शुभ कर्म करने की प्रेरणा -* 
“हरि भज साफिल जीवना, परोपकार समाय । 
दादू मरणा तहँ भला, जहँ पशु पक्षी खाय ॥” 
उक्त साखी में परोपकारादि शुभ कर्मों की विशेस रूप से प्रेरणा करते हुये कहते हैं अपना शव भी परोपकार में आ जाय ऐसी ही व्यवस्था करनी चाहिये । उक्त वचनों से ज्ञात होता है कि दादूवाणी में सूत्र रूप से कर्म काँड का वर्णन है । 
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*उपासना -* 
“कछु न कहावे आपको, सांई को सेवे । 
दादू दूजा छाड़ सब, नाम निज लेवे ॥” 
उक्त साखी में भक्ति करने की प्रेरणा की है और दादूवाणी के स्मरण के अंग में तथा विरह के अंग में उपासना का विशद रूप से वर्णन है । 
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*ज्ञान -* 
“काचा उछले ऊफणे, काया हाँडी मांहिं ।
दादू पाका मिल रहै, जीव ब्रह्म दो नांहिं ॥” 
उक्त साखी में आत्मा परमात्मा की एकता रूप ज्ञान का कथन है तथा परिचय और विचारादि के अंगों में विशेष रूप से अद्वैत ज्ञान का ही निरूपण हुआ है । अतः ज्ञान काँड भी दादूवाणी में पूर्ण रूप से है । चारों ही वेदों के कितने ही वचन तो ध्येय ब्रह्म के बोधक हैं और कितने ही ज्ञेय ब्रह्म के बोधक हैं और जो कर्म के बोधक वचन हैं, उनका भी अन्तःकरण की शुद्धि द्वारा ज्ञान में ही तात्पर्य है । वैसे दादूवाणी में भी हैं । 
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*ध्येय ब्रह्म -*
“कौण पटंतर दीजिये, दूजा नांहीं कोय । 
राम सरीखा राम है, सुमिरे ही सुख होय ॥” 
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*ज्ञेय ब्रह्म -*
“सारों के शिर देखिये, उस पर कोई नांहिं । 
दादू ज्ञान विचार कर, सो राख्या मन मांहिं ॥” 
अन्तःकरण की शुद्धि के हेतु दैवीगुण, विनय आदि मानस कर्म, स्तुति आदि वाचक कर्म, दंडवत आदि कायिक कर्मों का दादू वाणी में स्थल - स्थल पर वर्णन है । उक्त प्रकार त्रिकांड रूप वेद वाणी में सूत्ररूप से विद्यमान हैं । ज्ञान कांड रूप उपनिषद् भाग की श्रुतियों के अर्थ से दादूवाणी परिपूर्ण है । ग्रन्थ वृद्धि के भय से यहां वे वेदादि के वचन नहीं दिये जा रहे हैं । कारण उनके देने से उनका अनुवाद भी देना आवश्यक हो जाता है । अनुवाद बिना सर्व साधारण के उपयोगी नहीं हो सकते । किन्तु कोई भी विद्वान् जिसको उपनिषद् कंठ हो वह दादूवाणी को ध्यान से पढ़े तो, उसे उक्त कथन की यथार्थता पूर्णतः ज्ञात होगी । बहुत श्रुतियों का अर्थ दादूवाणी में मिलेगा । 
(क्रमशः)

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