रविवार, 19 मार्च 2017

= १३७ =


卐 सत्यराम सा 卐
दादू नैन बिन देखबा, अंग बिन पेखबा,
रसन बिन बोलबा ब्रह्म सेती ।
श्रवण बिन सुनबा, चरण बिन चालबा,
चित्त बिन चिन्तबा, सहज एती ॥ 
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साभार ~ Rajnish Gupta

*(((((((((( मैं ही राम हूँ ))))))))))*
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तुलसी दास जी अपने इष्टदेव का दर्शन करने श्री जगन्नाथ पुरी गये। मंदिर में भक्तों की भीड़ देख कर प्रसन्न मन से अंदर प्रविष्ट हुए। जगन्नाथ जी का दर्शन करते ही निराश हो गये। विचार किया कि यह हस्तपाद विहीन देव हमारा इष्ट नहीं हो सकता। 
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बाहर निकल कर दूर एक वृक्ष के तले बैठ गये। सोचा कि इतनी दूर आना व्यर्थ हुआ। क्या गोलाकार नेत्रों वाला हस्तपाद विहीन दारुदेव मेरा राम हो सकता है ? कदापि नहीं। रात्रि हो गयी, थके-माँदे, भूखे-प्यासे तुलसी का अंग टूट रहा था। अचानक एक आहट हुई। वे ध्यान से सुनने लगे।
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अरे बाबा ! तुलसी दास कौन है ? एक बालक हाथों में थाली लिए पुकार रहा था। तभी आप उठते हुए बोले - 'हाँ भाई ! मैं ही हूँ तुलसी दास।' 
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बालक ने कहा, 'अरे ! आप यहाँ हैं। मैं बड़ी देर से आपको खोज रहा हूँ।' बालक ने कहा - 'लीजिए, जगन्नाथ जी ने आपके लिए प्रसाद भेजा है ।'
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तुलसी दास बोले - 'कृपा करके इसे वापस ले जायँ।' बालक ने कहा, आश्चर्य की बात है, 'जगन्नाथ का भात-जगत पसारे हाथ' और वह भी स्वयं महाप्रभु ने भेजा और आप अस्वीकार कर रहे हैं । कारण ? 
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तुलसी दास बोले, 'अरे भाई ! मैं बिना अपने इष्ट को भोग लगाये कुछ ग्रहण नहीं करता। फिर यह जगन्नाथ का जूठा प्रसाद जिसे मैं अपने इष्ट को समर्पित न कर सकूँ, यह मेरे किस काम का ?'
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बालक ने मुस्कराते हुए कहा, बाबा ! आपके इष्ट ने ही तो भेजा है। तुलसी दास बोले - यह हस्तपाद विहीन दारुमूर्ति मेरा इष्ट नहीं हो सकता । 
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बालक ने कहा कि अपने श्री रामचरित मानस में तो आपने इसी रूप का वर्णन किया है 
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बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना।
कर बिनु कर्म करइ बिधि नाना ।।
आनन रहित सकल रस भोगी।
बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।
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अब तुलसी दास की भाव-भंगिमा देखने लायक थी। नेत्रों में अश्रु-बिन्दु, मुख से शब्द नहीं निकल रहे थे । 
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थाल रखकर बालक यह कहकर अदृश्य हो गया कि मैं ही राम हूँ। मेरे मंदिर के चारों द्वारों पर हनुमान का पहरा है। विभीषण नित्य मेरे दर्शन को आता है । कल प्रातः तुम भी आकर दर्शन कर लेना।
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तुलसी दास जी ने बड़े प्रेम से प्रसाद ग्रहण किया। प्रातः मंदिर में उन्हें जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के स्थान पर श्री राम, लक्ष्मण एवं जानकी के भव्य दर्शन हुए। भगवान ने भक्त की इच्छा पूरी की।
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जिस स्थान पर तुलसी दास जी ने रात्रि व्यतीत की थी, वह स्थान *'तुलसी चौरा'* नाम से विख्यात हुआ। वहाँ पर तुलसी दास जी की पीठ *'बड़छता मठ'* के रूप में प्रतिष्ठित है।
(कल्याण -87/9)

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