गुरुवार, 23 मार्च 2017

= १४६ =

卐 सत्यराम सा 卐
तूं सत्य तूं अविगत तूं अपरंपार, 
तूं निराकार तुम्हचा नाम ।
दादू चा विश्राम, देहु देहु अवलम्बन राम ॥
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साभार ~ Rajnish Gupta

(((((((((( भक्त नामदेव ))))))))))
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संवत् १८२४ में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा रविवार को भगवद्भक्त दाया सेठ और गोणाई देवी के घर एक बालक का जन्म हुआ । इस बालक का नाम नामदेव रखा गया ।
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दाया सेठ जाति से दर्जी थे और हर समय भगवान के भजन में अपना समय व्यतीत करते थे । प्रात: काल ही भगवान विट्ठल को भोग लगाकर अन्न-जल ग्रहण करते थे । 
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माता-पिता से दिन-रात भगवन्नाम सुनते-सुनते नामदेव की भी लगन भगवान् से लग गई । यह भी माता-पिता के साथ भगवान् का भजन और आरती करते ।
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एक दिन प्रात: काल इनके पिता को किसी आवश्यक कार्य से बाहर जाना पड़ गया । जाने से पूर्व वे नामदेव को ही विट्ठलजी की पूजा-अर्चना का कार्य सौंप गए । 
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बालक नामदेव ने स्नान किया और विट्ठलजी को भी स्नान कराकर चंदन पुष्पादि चढ़ाए और दूध का पात्र विट्ठलजी के सामने रखकर उनसे दूध पीने का आग्रह करने लगे ।
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आखें बद किए विट्ठलजी के समक्ष नामदेव का वह बाल आग्रह कितना निश्छल था ! कुछ समय बाद उन्हाने नेत्र खोले तो दूध ज्यों-का-त्यों पाया । 
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“भगवन् , मुझसे क्या अपराध हो गया है ? क्या बालक जानकर आप मुझे बहका रहे हैं ? कृपा करके दूध पी लीजिए ।” ऐसा कहकर उन्होंने पुन: नेत्र बंद कर लिए, परंतु फिर भी दूध ज्यों-का-त्यों रखा हुआ था । 
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नामदेव को बड़ा दुख हुआ । “भगवन्, यदि आप दूध नहीं पीते तो मैं भी कभी दूध नहीं पिऊंगा ।” इस बालहठ और करुण पुकार ने भगवान् को भी पिघला दिया ।
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उनकी आस्था देखकर भगवान् ने प्रकट हो कर दूध पी लिया । अब तो बालक नामदेव को रास्ता मिल गया था । 
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वह जो भी पदार्थ भोग लगाते उसे पहले भगवान् को खाने पर बाध्य कर देते। इस प्रकार भगवान् के उस बाल भक्त की भक्ति पराकाष्ठा पर पहुच गई उन्हे भगवद्ध भजन के सिवाय कुछ और नहीं सूझता था ।
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युवावस्था आने पर उनका विवाह सेठ सदावतें की कन्या रजाई के साथ हुआ। रजाई सुशील और सदाचारी कन्या तो थी ही धर्मपरायण पत्नी भी थी।
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कुछ समय पश्चात दाया सेठ का निधन हो गया और गृहस्थी का भार नामदेव के कंधों पर आ पड़ा । उनकी माता तथा पत्नी ने उन्हें व्यापार संभालने को कहा परतु गृहस्थी और व्यापार में उनका मन ही नहीं लगता था । 
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वे तो भगवद्ध भजन के अलावा कुछ करना ही नहीं चाहते थे और वहां से आकर वे पण्डरपुर में रहने लगे । यहां प्रात: काल चद्रभागा में स्थान करते और भगवान् का भजन और कीर्तन करते रहते । 
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भक्त पुण्डलीक पण्डरपुर में ख्याति प्राप्त थे। नामदेव उनके दर्शन करते। संत ज्ञानेश्वर से उनकी प्रगाढ़ मित्रता थी।
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नामदेव जी के जीवन में अनेक चमत्कार हुए जो उनकी भक्ति की प्रबलता के संकेत रहे ।
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एक बार पण्डरपुर में रहते हुए इनकी कुटिया में आग लग गई। आग एक तरफ ही लगी थी। नामदेवजी दूसरी तरफ की चीजों को भी उठा-उठाकर आग में फेंकने लगे ।
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लोग आश्चर्यचकित थे परतु नामदेव तो प्रसन्नता से नाच रहे थे । “प्रभु आप एक तरफ से ही क्यों प्रज्वलित हुए ?” नामदेव कह रहे थे । 
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कुछ ही देर में आग स्वत: ही बुझ गई और जाने कहां से एक अपरिचित मजदूर ने आकर कुटिया की मरम्मत कर दी और बिना कुछ लिए ही सिर्फ मुस्कराकर वहां से चल पड़ा ।
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कुछ दूर तक जाता तो उसे सबने देखा फिर यूं लोप हो गया जैसे हवा में विलीन हो गया हो ।
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एक बार नामदेव भ्रमण करते हुए एक गांव में पहुंचे । उस गांव में एक निर्धन का खंडहर मकान था जिसमें नामदेव ठहरे । 
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उस मकान में रात्रि को ही बड़ी डरावनी आवाजें आईं और एक भयंकर आकृति हुंकारती-सी इनके समक्ष आ गई । नामदेव ने देखा कि वह कोई ब्रह्मराक्षस जैसी आकृति थी । 
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उन्होंने उसे प्रणाम किया और प्रेमपूर्वक कहा : “प्रभु आप भी कितने अद्भुत रूप धारण कर लेते हो ।” बिना भयभीत हुए ही प्रभु कि कीर्तन करने लगे । 
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क्षण-भर में ही दृश्य बदला और ब्रह्मराक्षस के स्थान पर शंख चक्र गदा और पद्मधारी भगवान विष्णु खड़े थे ! नामदेव भाव-विहल होकर उनके चरणों में गिर पड़े ।
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नामदेव को महाराष्ट्र में चलने वाले ‘बारकरी’ पंथ का संस्थाप्क कहा जाता है जिसमें भगवान की भक्ति की गई है । उन्होंने मवाड़ी छंदों में ईश्वर का नाम लिया है । ये छंद महाराष्ट्र में अभंग कहे जाते हैं । नामदेव ने इन अभंग छंदों में भक्तों को निंदा पाखंड और अहंकार से बचे रहने का मूलमंत्र दिया है ।
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इस प्रकार भगवद्भक्त नामदेव संवत् १४०७ में इस नश्वरता के बंधन तोड़कर परमात्मा से जा मिले । 80 वर्ष तक जनमानस को भक्ति की महत्ता समझाकर यह महान आत्मा अपने अंतिम सफर पर चली गई ।
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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