मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

= मन का अंग =(१०/५५-७)


#daduji 
卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*मन का अँग १०* 
इन्द्री अपने वश करे, सो काहे याचन जाइ ।
दादू सुस्थिर आतमा, आसन बैसे आइ ॥५५॥
जिस साधक का मन साधन, सँपन्न होकर इन्द्रियों को अपने वश में कर लेता है वह किस लिये भोगों की याचना करने जायेगा ? उसकी बुद्धि तो ब्रह्म में सम्यक् स्थिर हो जाती है । अत: उसका मन भी अपने ब्रह्मरूप अचल आसन पर आकर स्थिरता पूर्वक बैठ जाता है, विषयाशा में नहीं दौड़ता ।
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मन मनसा दोनों मिले, तब जीव कीया भाँड ।
पँचों का फेर्या फिरे, माया नचावे राँड ॥५६॥
इन्द्रियाधीन मन और विचार - हीन बुद्धि जब दोनों मिल जाते हैं तब जीव को भाँड - वृत्ति वाला बना देते हैं, फिर तो वह पँचों इन्द्रियों की प्रेरणा से पँचविषयों की प्राप्ति के लिये भाँड के समान जन - जन की स्तुति करता फिरता है । इस प्रकार विषय - वासना रूप राँड माया और मायिक पदार्थों के लिए जीव को सँसार में नचाती है ।
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नकटी आगे नकटा नाचे, नकटी ताल बजावे ।
नकटी आगे नकटा भावे, नकटी नकटा भावे ॥५७॥
सुविचार - नाक से रहित विषय - वासना सँपन्न बुद्धि रूप नकटी के आगे सँतोष - नाक हीन मन रूप नकटा विषय - वासना की पूर्ति के लिए उद्योग - नृत्य करता है और बुद्धि - नकटी उसका समर्थन रूप ताल बजाती है । बुद्धि - नकटी के आगे मन - नकटा विषय प्रशँसा रूप गीत गाता है और बुद्धि - नकटी को मन - नकटा का उक्त गीत गाना प्रिय लगता है । इस प्रकार ये दोनों जीव को विषयों मेँ फँसा कर व्यथित करते हैं । 
(क्रमशः)

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