मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

= विन्दु (२)९७ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)* 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९७ =*
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*= ५२ शिष्यों को कर्तव्य का उपदेश =* 
फिर गरीबदासजी ने पूछा - भगवन् ! आपने सौ के लिये तो कर्तव्य का आदेश दे दिया है, किन्तु शेष जो रहे हैं, उन हम लोगों को क्या आज्ञा है ? वह भी कृपा करके कहिये । 
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गरीबदासजी का उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी महाराज ने कहा - शेष ५२ प्रधान शिष्य हैं, जिनमें एक अभी बालक ही है । वह है जिस बालक को दौसा में दीक्षा दी थी वह ५२वाँ है । वह बालक होनहार है । उच्चकोटि का विद्वान् तथा उच्चकोटि का कवि और उच्चकोटि का संत भी होगा । 
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इतना कहकर सामने बैठे हुये रज्जबजी को कहा - रज्जबजी ! तुम और दौसा वाले जगजीवनजी दोनों संत उस बालक सुन्दरदास का विशेष रूप से ध्यान रखना और उसे काशी ले जाकर अपनी देख - रेख में अध्ययन कराना । यह मेरी बात भूलना नहीं । उस बालक सुन्दरदास के सहित आप ५२ शिष्यों का यह कर्तव्य है । 
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आप लोग मेरी वाणी के सिद्धान्त का प्रचार करना । जनता को उपदेश देकर निरंजन राम की भक्ति में लगाना और शिष्य प्रशिष्यों के द्वारा इस कार्य को बढ़ाना और जिसको जो प्रदेश अच्छा लगे वहां ही अपना साधन धाम बनाकर भजन करना और उस प्रदेश की जनता को अनाचार, अत्याचार आदि अनर्थों से छुड़ाकर निर्गुण ब्रह्म की भक्ति में लगाना । मेरी वाणी का पूर्ण आश्रय रखना । प्रतिष्ठा के चक्र में मत फँसना संसार के व्यक्तियों में तथा वस्तुवों में अनुराग नहीं करना उनके साथ कर्तव्य का पालन करते हुये निरंतर निरंजन राम स्वरूप आत्मा का चिन्तन ही करना । ऐसा करने से आप लोगों को निर्गुण ब्रह्म भक्ति के प्रचार में सफलता मिलेगी । इस प्रकार तुम लोग असंख्य प्राणियों को संसार बन्धन से मुक्त कर सकोगे और तुम्हारे ब्रह्मलीन होने के पीछे भी तुम्हारी विचार धारा से प्राणियों का उद्धार होता ही रहेगा । 
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मेरा आगमन यहां भगवत् आज्ञा से इसी कार्य के लिये हुआ था । मैंने यहां निर्गुण ब्रह्म भक्ति का प्रचार किया है और इसी कार्य के लिये आप लोगों को तैयार किया है । अब आप लोग मिलकर मेरे इस कार्य का विशेष प्रचार करें । आप लोगों ने जिस साधना का पूर्णरूप से अभ्यास किया है, उस निर्गुण ब्रह्म भक्ति का प्रचार इस समुद्र मेखला पृथ्वी में अपनी शक्ति भर करें । यही आप लोगों के लिए भविष्य में कर्तव्य है । 
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दादूजी महाराज का उक्त उपदेश सुनकर ५२ शिष्यों ने अपने कर्तव्य को पहचान कर वैसा ही करने का निश्चय उसी क्षण कर लिया और कहा - स्वामिन् ! आपके हम शिष्य आपकी आज्ञानुसार ही भविष्य में कार्य करेंगे, यह दृढ़ निश्चय हमने आपके सामने ही अपने हृदयों में कर लिया है, और इस कार्य के करने का प्रयत्न हम अपनी शक्ति भर जीवन पर्यन्त करते रहेंगे और भविष्य में होने वाले अपने शिष्यों प्रशिष्यों को भी यही उपदेश देकर तन त्याग करेंगे । इस प्रकार आपकी विचार धारा की परंपरा चलती ही रहेगी । ऐसा हम लोगों का दृढ़ विश्वास है । इतना कहकर सब शिष्यों ने गुरुदेव दादूजी महाराज की जय बोलकर प्रेम सहित प्रणाम किया । फिर सभा विसर्जन हो गई । 
(क्रमशः)

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