बुधवार, 19 अप्रैल 2017

= मन का अंग =(१०/५८-६०)

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卐 सत्यराम सा 卐 

*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*मन का अँग १०*
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*अन्य लग्न व्यभिचार*
पँचों इन्द्री भूत हैं, मनवा क्षेतरपाल ।
मनसा देवी पूजिये, दादू तीनों काल ॥५८॥
५८ - ५९ में आत्मा से भिन्न के पीछे लगना व्यभिचार है, यह कह रहे हैं - भगवान् से विमुख विषयासक्त सँसारी प्राणी भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों ही कालों में, पँच - इन्द्रिय रूप, भूत, मन क्षेत्र - पाल, और विषय - वासना रूप मनसा देवी को ही पूजते हैं ।
जीवत लूटैं जगत सब, मृतक लूटैं देव ।
दादू कहां पुकारिये, कर कर मूये सेव ॥५९॥
ये पँच इन्द्रिय, मन और वासना जीते जी तो जगत् के जीवों को लूटते ही हैं किन्तु मरने पर भी भूत, भैरव, क्षेत्रपाल और मनसा देवी आदि देव बन कर सभी जगत् को लूटते हैं अर्थात् मनादि के भ्रम से ही भूतादि की पूजा करते हैं । इनके उपद्रव के विषय में हम कहां - कहां पुकार के कहें, कोई भी नहीं सुनता, प्राय: सभी लोगों के जीव इनकी सेवा करते - करते मर जाते हैं किन्तु भगवान् की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता ।
*मन*
अग्नि धूम ज्यों नीकले, देखत सबै विलाइ ।
त्यों मन बिछुटा राम सौं, दह दिशि बीखर जाइ ॥६०॥
६० - ६९ में मन की चपलता तथा निग्रहादि विषयक विचार दिखा रहे हैं - जैसे अग्नि से धुआं निकल कर देखते - देखते सभी अदृश्य हो जाता है वैसे ही निरंजन राम के चिन्तन से अलग हुआ मन दश इन्द्रियों के विषय रूप दशों दिशाओं में फैल कर अदृश्य हो जाता है=विषय के आकार का ही हो जाता है ।
(क्रमशः)

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