#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मन का अँग १०*
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दादू देह यतन कर राखिये, मन राख्या नहिं जाइ ।
उत्तम मध्यम वासना, भला बुरा सब खाइ ॥८५॥
सँसारी जन किसी प्रकार लोक - लज्जादि द्वारा देह को तो प्रयत्न करके अस्पर्श्य और अखाद्यादि से बचा लेते हैं किन्तु मन को तो नहीं बचा सकते । अच्छी तथा बुरी वासना सम्पन्न हुआ मन न छूने योग्य सबको जा छूता है और न खाने योग्य सबको खाता रहता है ।
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दादू हाडों मुख भर्या, चाम रह्या लिपटाइ ।
माँहीं जिव्हा माँस की, ताही सेती खाइ ॥८६॥
विचारहीन प्राणी हड्डी आदि के छू जाने से अपने को अपवित्र मान लेते हैं किन्तु यह नहीं समझते कि - वे सब हमारे शरीर में भी हैं । दांत हड्डी है, उनसे मुख भरा है । चर्म शरीर पर लिपट ही रहा है और मुख में जिव्हा माँस की है ही, उसी से तो यह पवित्र वस्तुओं का आस्वादन करता है ।
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नौओं द्वारे नरक के, निश दिन बहै बलाइ ।
शुचि कहां लौं कीजिये, राम सुमिर गुण गाइ ॥८७॥
दो कान, दो नेत्र, दो नाक, मुख, मलेन्द्रिय और मूत्रेन्द्रिय ये नौओं द्वार मल निकलने के हैं । इनसे रात्रि दिन दु:खप्रद मल बहता ही रहता है । कहो, फिर कहां तक पवित्रता के लिए प्रयत्न किया जाय ? ये मलीन वस्तुएँ तो शरीर से दूर हो नहीं सकती । शरीर बना ही इनसे है । अब यदि पवित्र होना चाहता है तो निरंजन राम का स्मरण कर और उन्हीं के गुणों का सँकीर्तन कर, जिससे मन निर्मल होगा, मन निर्मल होने से ही प्राणी पवित्र माना जाता है ।
(क्रमशः)
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