गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

= ७ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू एक शब्द सौं ऊनवै, वर्षन लागै आइ ।
एक शब्द सौं बीखरै, आप आपको जाइ ॥ 
दादू साधु शब्द सौं मिल रहै, मन राखै बिलमाइ ।
साधु शब्द बिन क्यों रहै, तब ही बीखर जाइ ॥
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साभार ~ Pravesh K. Singh

एक बार एक मुमुक्षु शिष्य किन्हीं संत के निकट श्रद्धावनत हो उपनीत हुआ और उनसे नम्रतापूर्वक मुक्ति साधना की युक्ति सिखलाने का अनुरोध किया। उन संत सद्गुरु ने उसे करुणा कर एक मन्त्र बतलाकर उसे मन ही मन जपने को कहा इस ताकीद के साथ कि इस मन्त्र को बिल्कुल गुप्त रखना, कभी किसी पर प्रकट नहीं करना । श्रद्धावान शिष्य नित्य नियमित रुप से मानस जप की साधना करने लगा । 
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अचानक एक दिन उसने मार्ग पर जाते भक्तों के एक झुंड को देखा जो उसी मंत्र को जोर जोर से गाते हुए चला जा रहा था। शिष्य आश्चर्यचकित था ! इस मंत्र को तो गुप्त रखने का आदेश था गुरु महाराज का और यहाँ ये लोग इसे सार्वजनिक रूप से उच्चारित करते चले जा रहे हैं । अत्यंत खिन्न, उद्विग्न एवं दुविधाग्रस्त मन से शिष्य गुरु के पास पहुंचा और अपनी आपत्ति उन के समक्ष प्रकट की । गुरु ने उसे समझाया कि वह मंत्र भले ही दूसरे यूँही जप लें उससे कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। पर, वही मंत्र जब गुरु देते हैं तो उसे सिद्ध करके देते हैं और सिद्ध मंत्र का फल कुछ अलग ही होता है । अतः, वह अविचलित मन से साधना करता चले। 
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इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव महर्षि संतसेवी जी गंधक का उदाहरण प्रस्तुत किया करते थे । वे कहते थे कि एक प्रकार की गंधक पंसारी की दुकान में मिलती है । उस गंधक को यदि कोई स्वस्थ व्यक्ति खा ले तो उसके फोड़े निकल आते हैं । वहीं एक अन्य प्रकार की गंधक वैद्यराज के पास भी मिलती है । यदि किसी को फोड़े निकल आए हों और वह वैद्यराज की गंधक को खा ले तो फोड़े ठीक हो जाते हैं । ऐसा इसलिए होता है कि वैद्यराज की गंधक शोधी हुई रहती है, इसलिए उसके प्रताप से चर्म रोग दूर हो जाते हैं ।
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आज सुबह मैं सुमन के साथ अपने बगीचे में कचरे की सफाई कर रहा था । वहीं वृक्ष से टूट कर गिरे चीकू के फलों को देखकर मन में अनायास एक विचार आया या यूं कहें, कौंधा। सोचा, अपनों से शेयर करता हूँ... कितनी बार हम चीकू के बीजों को कभी बगीचे में या कभी घर के बाहर फेंक देते हैं । पर, आज तक उनसे एक भी वृक्ष नहीं जन्मा । यह बात खासकर बरगद और पीपल के बारे में और भी लागू होती है जिनके बारे में कहा जाता है कि उनके फलों के बीज को मिट्टी में लगाने से उनसे कभी पेड़ नहीं निकलता । 
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पर, उन्हीं फलों को यदि कोई पक्षी खाकर बीट कर दें तो इस प्रकार गिरे बीजों से स्वतः सहज रूप से पीपल के पौधे निकल आते हैं । ऐसा क्यों होता है ? पक्षी जब उस बीज को अपने शरीर के अपने अंदर रख कर पकाते, पचाते , सिद्ध कर देते (सिद्ध करने के कई अर्थों में से एक पकाना भी होता है जैसे - चावल या भोजन सिद्ध करना) हैं तो उन्हीं बीजॉ से पौधे उत्पन्न हो जाते हैं और ऐसी-ऐसी जगहों से, जैसे सीढ़ियों के कोने, छत की मुंडेर, ऊँची दीवारों, या पत्थर, ईंट इत्यादि से, उत्पन्न होते हैं, जहाँ से पौधों या किसी प्रकार की वनस्पति की उत्पत्ति की ऐसे कल्पना तक भी नहीं की जा सकती। (ऐसे हम प्रयास करें तो भी वहाँ कुछ उगा नहीं सकते।) वहीं, बाहर बिखरे पड़े हजारों बीजों से कोई जीवन उत्पन्न नहीं होता ।
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*ठीक इसी तरह मंत्र तो यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े होते हैं । पर, वे तो अक्षरों का एक समुच्चय मात्र होते हैं । उनसे कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । पर, उन्हीं मंत्रों को जब कोई सिद्ध पुरुष संत, योगी अपने अंतर में सिद्ध कर लेते हैं , तो वही मंत्र शब्द मात्र न रहकर चमत्कारिक शक्ति से संपन्न हो जाते हैं और ऐसे सिद्ध मंत्र विशेष फलदाई हो जाते हैं, और फिर ऐसे-ऐसे शुष्क और भक्ति-विहीन हृदय वाले व्यक्तियों में भक्ति का वटवृक्ष उगा देते हैं, जहाँ इसकी कल्पना करना भी अति दुष्कर कार्य है। (वैसे उनके हृदय में भक्ति का अंकुर उत्पन्न करना असंभव कार्य है।) गुरु धन्य हैं! गुरु धन्य हैं! गुरु धन्य हैं! जय गुरु! जय गुरु! जय गुरु!*
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- प्रवेश कुमार सिंह

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