सोमवार, 10 अप्रैल 2017

= १७३ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू देखु दयालु को, रोक रह्या सब ठौर ।
घट घट मेरा सांइयाँ, तूँ जनि जानै और ॥ 
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साभार ~ Gems of Osho
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*कहावत है, मानिए तो देव, नहीं तो पत्थर। क्या सब मानने की ही बात है?*
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मैं कहावत को थोड़ा-सा बदलना चाहूंगाः 
*"जानिए तो देव, नहीं तो पत्थर'*। 
मानने से तो पत्थर पत्थर ही रहता है; सिर्फ तुम्हारी आंखें भ्रम से भर जाती हैं; सिर्फ तुम पत्थर में देवता को देखने लगते हो, मानने से पत्थर में अंतर नहीं पड़ता मानने से तो सिर्फ तुम्हारी आंख का चश्मा बदल जाता है। तुमने रंगीन चश्मा आंख पर रख लिया तो सभी चीजें रंगीन दिखाई पड़ने लगती हैं; लेकिन सभी चीजें रंगीन हो नहीं गईं। तुम चश्मा उतार कर रख दोगे, चीजें फिर रंगहीन हो जाएंगी। चीजें तो जैसी हैं वैसी ही हैं। हिंदू-मंदिर में गए; यदि तुम मुसलमान हो तो पत्थर पत्थर ही रहता है, क्योंकि तुम्हारी आंख पर हिंदू का चश्मा नहीं है। यदि तुम हिंदू हो तो पत्थर देवता मालुम होता है क्योंकि तुम्हारी आंख पर हिंदू का चश्मा है। अगर तुम जैन-मंदिर में गए तो महावीर की मूर्ति पत्थर ही बनी रहती है, देवत्व उसमें प्रकट नहीं होता; तुम्हारी आंख पर जैन का चश्मा नहीं है।
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मानने से तो सिर्फ चश्मे बदलते हैं। मानने के धोखे में मत पड़ना। जानने की यात्रा करो। जानो तो निश्चित देव ही है, पत्थर तो है ही नहीं। मूर्तियों में ही नहीं, पहाड़ों में भी जो पत्थर है वहां भी देवता ही छिपा है। जानने से तो परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ बचता ही नहीं है। जाना कि परमात्मा के द्वार खुले--हर तरफ से, हर दिशा से, हर आयाम से। कंकड़-कंकड़ में वही है। तृणत्तृण में वही है। पल-पल में वही है। लेकिन जानने से।
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विश्वास से शुरू मत करना; बोध से शुरू करो। विश्वास तो आत्मघात है। अगर मान ही लिया तो खोजोगे कैसे? और तुम्हारे मानने में सत्य कैसे हो सकता है? एक क्षण पहले तक तुम्हें पत्थर दिखाई पड़ता था, और अब तुमने मान लिया और देवता देखने लगे। यह देखने लगे चेष्ठा करके, लेकिन भीतर किसी गहराई में तो तुम अब भी जानोगे न कि पत्थर है! उस भीतर की गहराई को कैसे बदलोगे? संदेह तो कहीं न कहीं छिपा ही रहेगा, बना ही रहेगा। इतना ही होगा कि ऊपर-ऊपर विश्वास हो जाएगा; संदेह गहरे में सरक जाएगा। यह तो और खतरा हो गया। संदेह ऊपर-ऊपर रहता, इतना हानिकर नहीं था। यह तो संदेह और भीतर चला गया, और प्राणों के रग-रेशे में समा गया। यह तो तुम्हारा अंतःकरण बन गया।
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यही तो हुआ है। दुनिया में इतने लोग हैं, करोड़ों-करोड़ों लोग मंदिर जाते, मस्जिद जाते , गुरुद्वारा जाते, चर्च जाते और इनके भीतर गहरा संदेह भरा है। ईसाई और हिंदू और मुसलमान सब ऊपर-ऊपर हैं और भीतर संदेह की आग जल रही है। और वह संदेह ज्यादा सच्चा है, क्योंकि संदेह तुमने थोपा नहीं है। ज्यादा स्वाभाविक है। और तुम्हारा विश्वास थोपा हुआ है, आरोपित है। आरोपित विश्वास स्वाभाविक संदेह को कैसे मिटा सकेगा? आरोपित विश्वास तो नपुंसक है। स्वाभाविक संदेह अत्यंत ऊर्जावान है। फिर कौन मिटा सकता है स्वाभाविक संदेह को? स्वाभाविक श्रद्धा ही मिटा सकती है सत्य संदेह को। बलशाली संदेह को बलशाली श्रद्धा ही मिटा सकती है और श्रद्धा कब बलशाली होती है? तुम्हारे करने से नहीं होती; जानने से होती है, बोध से होती है। तुम देख लो कि परमात्मा है, तब श्रद्धा होती है। तुमने मान लिया, ये तो लचर बातें हैं; ये तो बैसाखियां हैं, जिनके सहारे तुम बहुत चल चुके।
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तो जिन्होंने यह कहावत गढ़ी होगी, "मानिए तो देव, नहीं तो पत्थर,' उन्होंने सार की बात कही है। यही स्थिति है अधिक मनुष्यता की। मान-मान कर सब चल रहे हैं। अंधे ने मान लिया है कि रोशनी है। बस माना है; आंख खुली नहीं है; खुली आंख ने देखा भी नहीं। यह भी हो सकता है कि अंधा आंख पर चश्मा लगा ले। लेकिन अंधे की आंख पर चश्में का क्या मूल्य है? आंख हो तो चश्मा देखने में सहायता भला कर दे; आंख न हो तो चश्मा क्या करेगा? तो बहुत-से अंधे चश्मे लगाए चल रहे है; फिर भी टकराते हैं। टकराएंगे ही। बहुत-से अंधों ने चश्मा भी लगा लिया है, हाथ में लालटेनें भी ले रखी हैं ताकि रोशनी साथ रहे। मगर फिर भी टकराएंगे।
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तुम्हारे शास्त्र तुम्हारे हाथ में लटकी हुई लालटेनों की तरह हैं। और तुम्हारे विश्वास तुम्हारी अंधी आंखों पर चढ़े हुए चश्मों की भांति हैं। इनका कोई मूल्य नहीं है दो कौड़ी मूल्य नहीं है। इनसे हानि है; लाभ तो ज़रा भी नहीं। इनके कारण आंख नहीं खुल पाती है। इनकी भ्रांति के कारण तुम कभी जानने की चेष्टा में संलग्न ही नहीं हो पाते।
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मैं तुमसे कहता हूं: परमात्मा को मानना मत। मानने की जरूरत नहीं है। परमात्मा को मानोगे तो फिर जानोगे किसको? परमात्मा को मानने का मतलब तो यह हुआ कि तुमने जानने में हताशा प्रकट कर दी, तुम हार गए, तुमने अस्त्र-शस्त्र डाल दिए। तुमने कहा, खोज समाप्त हो गई; जानने को तो है नहीं, माने लेते हैं। सूरज को तो नहीं मानते हो, चांद को नहीं मानते हो; जानते हो। इस संसार को मानते तो नहीं, जानते हो। और परमात्मा को मानते हो? यह माना हुआ परमात्मा अगर तुम्हारे जाने हुए संसार के सामने बार-बार हार जाता है तो कोई आश्चर्य तो नहीं है। परमात्मा भी जाना हुआ होना चाहिए। जिस दिन परमात्मा जाना हुआ होता है उस दिन यह संसार फीका पड़ जाता है, माया हो जाता है, सपना हो जाता है।
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*अनुभव ही संपत्ति बनती है; थोथे विश्वास नहीं।*
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तो मैं इस कहावत में थोड़ा फर्क करता हूं। मैं कहता हूं: "जानिए तो देव, नहीं तो पत्थर।'
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अजहुँ चेत गँवार ~ ओशो

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