शनिवार, 15 अप्रैल 2017

= मन का अंग =(१०/४६-८)


#daduji 
卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*मन का अँग १०* 
हीरा मन पर राखिये, तब दूजा चढ़े न रँग ।
दादू यों मन थिर भया, अविनाशी के संग ॥४६॥
निरंजन राम का चिन्तन रूप हीरा मन में रखना चाहिए । जब निरँतर चिन्तन बना रहेगा तब मायिक राग - द्वेषादि द्वैत रँग मन पर नहीं चढ़ सकेगा । इस प्रकार ही भूतकाल के साधकों का मन अविनाशी ब्रह्म के साथ स्थिर हुआ था ।
सुख दुख सब झाँई पड़े, तब लग काचा मन ।
दादू कुछ व्यापै नहीं, तब मन भया रतन ॥४७॥
जब तक मन पर सुख - दु:खादि द्वन्द्वों का प्रतिविम्ब पड़ता है=वृत्ति सुखाकार - दु:खाकार होती है तब तक मन साधना में कच्चा है और जिस समय मन पर सुख - दु:खादि द्वन्द्वों का लेश - मात्र भी प्रभाव न पड़ेगा, तब समझना चाहिये - अब मन शुक्ति में स्वाति बिन्दु से बने हुए मोती रूप रत्न के समान ब्रह्म - भाव को प्राप्त हो गया ।
पाका मन डोले नहीं, निश्चल रहे समाइ ।
काचा मन दह दिशि फिरे, चँचल चहुं दिशि जाइ ॥४८॥
साधन द्वारा अपरोक्ष ज्ञान रूप परिपाकावस्था को प्राप्त हुआ मन साँसारिक विषयाशा से चँचल होकर विषयों में नहीं जाता, प्रत्युत निश्चल होकर निरँतर ब्रह्म चिन्तन में ही संलग्न रहता है और साधन - हीनता रूप कचाई से सँपन्न कच्चा मन दशों दिशाओं में भ्रमण करता हुआ पामर, विषयी, जिज्ञासु और परोक्ष ज्ञानी के व्यवहार रूप चारों दिशाओं में जाता है=कभी पामर, कभी विषयी, कभी जिज्ञासु और कभी परोक्ष ज्ञानी के समान विचार करता है ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें