॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९७ =*
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*= सौ शिष्यों को भैराणे पर्वत पर तप की आज्ञा =*
फिर उपस्थित शिष्यों ने पूछा - भगवन् ! हमारे लिये भविष्य में क्या कर्तव्य है ? वह भी आप अपने मुख - कमल से ही बताने की कृपा करें । तब दादूजी महाराज ने कहा - जो अप्रधान सौ शिष्य हैं, उनको मेरी आज्ञा है, वे सब भैराणे पर्वत पर साधन - भजन करते हुये तपस्या पूर्वक ही अपना जीवन व्यतीत करें । उनको सांसारिक कार्यों में भाग नहीं लेना चाहिये । वे सब विरक्त हैं, अतः उन्हें वैराग्य पूर्वक एकान्त में ही साधन करना चाहिये । ऐसा करने से वे सांसारिक प्राणियों का तथा अपना कल्याण करने में समर्थ होंगे ।
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दादूजी महाराज का उक्त वचन सुनकर गरीबदासजी बोले - भगवन् ! ये तो एकान्त में रहकर निरंतर भजन ही करेंगे, उससे उनका कल्याण तो अवश्य हो जायगा किन्तु उपदेश दिये बिना सांसारिक प्राणियों का भला कैसे होगा ? गरीबदासजी का उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी ने कहा - हिमालय उत्तर दिशा में एक स्थान पर ही रहता है, किन्तु उससे सब देश का भला होता है । वह सबके सामने तो नहीं आता है, उससे चलने वाली नदियां ही सब के सामने आती हैं । किन्तु उनमें जल कहां से आता है ? हिमालय से ही तो आता है, वैसे ही कल्याण की भावना उच्चकोटि के संतों से ही फैलती है और वह व्यवहार में प्रवृत्त प्राणियों को प्रचारकों द्वारा प्राप्त होती है ।
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प्रचारकों को जो प्रचार करने का बल प्राप्त है, वह उन तपस्या करने वालों का ही होता है । वे एकान्त निवासी संत एकान्त में स्थित रहकर भी विश्व की भलाई करने में समर्थ होते हैं । भैराणा पर्वत पूर्व काल से ही तपोभूमि रहा है । इससे पवित्र तीर्थ स्थान है । वहां तपस्या करने से तपस्वियों का उत्साह बढ़ता है । यह बात भी प्रसिद्ध है कि तपोभूमि में आने पर स्वाभाविक ही सब की भजन - साधन करने की इच्छा होती है और वहां तपस्या भी निर्विघ्न होती है । अतः सौ अप्रधान शिष्यों को प्रायः भैराणा पर्वत पर ही रहकर साधन करना चाहिये ।
(क्रमशः)
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