गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

= मन का अंग =(१०/४०-२)


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*मन का अँग १०*
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*पर प्रबोध*
दादू का परमोधे आन को, आपण बहिया जात ।
औरों को अमृत कहै, आपण ही विष खात ॥४०॥
४० - ४३ में धारणा रहित उपदेशक को सावधान कर रहे हैं - हे अजितमन उपदेशक ! तू अन्यों को आत्म ब्रह्म की एकता का क्या उपदेश कर रहा है ? अपनी ओर तो देख, तू स्वयम् माया - गुण प्रवाह में बहा जा रहा है । तू अवश्य ही अन्यों को तो अमृत के समान बातें कहता है किन्तु स्वयँ तो विषय - विष ही खाने में संलग्न है । अत: यह तेरी प्रवृत्ति तेरे लिये हानिकारक ही सिद्ध होगी ।
दादू पँचों का मुख मूल है, मुख का मनवा होइ ।
यहु मन राखे जतन कर, साधु कहावे सोइ ॥४१॥
पँच ज्ञानेन्द्रियों के जीतने में मूलकारण रसना का जीतना है । सात्विक मिताहार किया जाय तो सभी इन्द्रियें सतोगुण प्रधान होकर अपने अधीन रहेंगी और रसना इन्द्रिय के जीतने में कारण मन का जीतना है, मन वश रखने से आहार का सँयम स्वत: ही हो जाता है । जो इस मन को अभ्यास - वैराग्य - यत्न से अपने आत्म स्वरूप ब्रह्म में ही स्थिर रखता है, वही सँत कहलाता है ।
दादू जब लग मन के दोइ गुण, तब लग निपना१ नाँहिं ।
द्वै गुण मन के मिट गये, तब निपना मिल माँहिं ॥४२॥
जब तक मन के काम क्रोधादिक दो - दो गुण रूप द्वन्द्व नष्ट नहीं होते तब तक मन शुद्ध और स्थिर१ नहीं कहा जाता । जब द्वन्द्व नष्ट हो जायें तो समझो वह शुद्ध और स्थिर हो गया तथा आत्म - स्वरूप ब्रह्म में लय हो जायेगा ।
(क्रमशः)


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