बुधवार, 12 अप्रैल 2017

= १७८ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू जग दिखलावै बावरी, षोडश करै श्रृंगार ।
तहँ न सँवारे आपको, जहँ भीतर भरतार ॥ 
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साभार ~ Gems of Osho

*दिखावा*
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मैं एक घर में मेहमान था। वे मुझे लेकर पास के एक सरोवर पर गए सांझ के समय। सरोवर सुंदर था। वे उतरकर कुछ खरीदने गए, उनका छोटा बच्चा और मैं, दोनों गाड़ी में बैठे रहे। ठंडी ठंडी हवा ! छोटा बच्चा, उसको झपकी आ गई, वह गिर पड़ा। गिरा तो उसके सिर में चोट भी लग गई गाड़ी के स्टयरिंग वील से। उसे उठाकर मैंने बिठा दिया। मुझे लगे कि वह रोना चाहता है मगर रोता नहीं। अब खुद ही नहीं रोना चाहता तो मैं भी क्या करूं? मैंने कहा, बैठा रहे।
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वह बैठा रहा। आधा घंटे बाद उसके पिता लौटे। उनके आते ही से रोने लगा। मैंने कहा, देख, अब बेईमानी की बात है। आधा घंटे पहले तू गिरा था। उसने कहा, गिरा तो आधा घंटा पहले था मगर आपकी तरफ देखा और ऐसा लगा, कोई सार नहीं है रोने से। मैंने पूछा, अब तुझे दर्द हो रहा है? उसने कहा, अब दर्द नहीं हो रहा। फिर क्यों रो रहा है तू? मगर अब रोने में ठीक मालूम पड़ता है क्योंकि पिता आ गए हैं।
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अब यह बच्चा झूठ होने लगा। जब रोना चाहेगा तब रोएगा नहीं, जब रोने की कोई जरूरत नहीं होगी तब रोएगा। द्वंद्व शुरू हुआ। पाखंड शुरू हुआ।
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हम लोगों से कहते हैं, ईमानदारी से परमात्मा पर विश्वास करो। अब यह झूठ की बात है। अगर ईमानदारी शब्द का प्रयोग करते हो तो विश्वास किया नहीं जा सकता। क्योंकि जिसका पता नहीं उस पर कैसे विश्वास करें? और हम कहते हैं, ईमानदारी से परमात्मा पर विश्वास करो।
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इस्लाम तो ईमान शब्द का अर्थ ही धर्म करता है। "ईमानदारी से विश्वास करो, ईमान लाओ'। अब झूठ की बात हो रही है। परमात्मा का पता नहीं है, और ईमान ले आए तो यह बेईमानी हो गई । जब परमात्मा का पता होगा तब ईमान आएगा। वह ईमानदारी होगी। जब अनुभव होगा तब भरोसा होगा। उस भरोसे का नाम श्रद्धा है।
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यह तो श्रद्धा जिसे हम कहते हैं, झूठी है, नकली सिक्का है; है नहीं। मूल से यह भी बेईमानी का विचार है। मूल से ही झूठ है। और जहां मूल में झूठ हो जाए वहां सारे पत्ते झूठ न हो जाएं तो और क्या हो? हमारी जड़ें झूठ पर खड़ी हैं।
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हम लोगों को कुछ सिखा रहे हैं जिससे वे अपने आसपास एक तरह का रूप बना रखते हैं, एक मुखौटा। भीतर की हमें पहचान ही नहीं हो पाती फिर। हम बाहर ही बाहर जीने लगते हैं। फिर हम रोते हैं तो भी छिछला। आंसू शायद आंख से ही आते हैं, हृदय से नहीं आते। हंसते हैं तो भी छिछला। ओंठ पर ही फैली होती है हंसी : लिपस्टिक के रंग की तरह।
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अब देखते हो लिपस्टिक का रंग? ओंठ सूर्ख हों यह समझ में आता है। ओंठों में जीवन हो, लाली हो, यह समझ में आता है, लेकिन लिपस्टिक पोतकर चल रहे हो। किसको धोखा दे रहे हो? शर्म भी नहीं उठती। संकोच भी नहीं होता। ओंठ लाल होते, ठीक बात थी; होने चाहिए। ओंठ स्वस्थ हों, जीवंत हों, उनमें खून बहता हो, रसधार बहती हो, ठीक है, समझ में आनेवाली बात है। लेकिन रंग ऊपर से पोतकर चले !
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मगर यह हमारी पूरी जिंदगी का ढंग है। लिपस्टिक में हमारी आदमी की पूरी कथा छिपी है। वह उसकी पूरी कहानी है। वही उसकी व्यथा भी है। क्योंकि झूठ, सब झूठ है। सब दिखावा है।
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जब तुम किसी से कहते हो, मैं प्रेम करता हूं, तब भी तुम शायद कह ही रहे हो। तुम्हारा कोई प्रयोजन नहीं है। शायद तुमने सोचा भी नहीं है। यह कहने की आदत हो गई है।
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तो आदमी तो गीत भी गाएगा तो झूठ होंगे। एक ऐसा भी गीत है जो आदमी नहीं गाता, आदमी से गाया जाता है; उसी गीत का नाम धर्म है। एक ऐसा भी नृत्य है जो आदमी नहीं नाचता, आदमी के द्वारा नाचा जाता है; उसी नृत्य को अपौरुषेय कहा है।
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जैसे वेद के वचन अपौरुषेय है, मैं तुमसे कहना चाहता हूं, मीरा का नृत्य भी अपौरुषेय है; यद्यपि किसी ने यह बात इसके पहले कही नहीं है। क्योंकि कौन मीरा को, स्त्री को इतना गौरव दे! उसका नृत्य भी अपौरुषेय है; उतना ही अपौरुषेय जितने वेद के वचन; जितनी कुरान की आयतें।
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अपौरुषेय का अर्थ इतना ही होता है कि अब अहंकार नहीं है, अब मैं नहीं हूं। अब गाए तो वही गाए, नाचे तो वही नाचे। बैठे तो वही बैठे, उठे तो वही उठे। सब उसका है। मैं सब तरफ से झुक गया हूं, उसका हो गया हूं।
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नाम सुमिर मन बाँवरे ~ ओशो

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