शुक्रवार, 21 अप्रैल 2017

= १९५ =

卐 सत्यराम सा 卐
अखंड ज्योति जहँ जागै, 
तहँ राम नाम ल्यौ लागै ।
तहँ राम रहै भरपूरा, 
हरि संग रहै नहिं दूरा ॥
तिरवेणी तट तीरा, 
तहँ अमर अमोलक हीरा ।
उस हीरे सौं मन लागा, 
तब भरम गया भय भागा ॥ 
दादू देख हरि पावा, 
हरि सहजैं संग लखावा ।
पूरण परम निधाना, 
निज निरखत हौं भगवाना ॥ 
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साभार ~ Gems of Osho

*भीतर का अँधेरा*
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यहूदियों की बड़ी पुरानी कथा है कि हजरत मूसा जब सिनाई के पर्वत पर गए तो अचानक उन्होंने आवाज सुनी कि जूते उतार दे, क्योंकि यह पवित्र भूमि है। तो डरकर उन्होंने जूते उतार दिए। आगे बढ़े तो उन्होंने एक झाड़ी में आग को जलते देखा। वे बड़े हैरान हो गए। वह बड़ा चमत्कारी अनुभव था। आग तो जल रही थी और झाड़ी जल नहीं रही थी। आग में तो लपटें निकल रही थी; झाड़ी हरी की हरी थी।
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यहूदियों को बड़ी मुश्किल हुई यह समझाने में कि इसका क्या मतलब होगा। इसका मतलब बाहर की किसी कथा से नहीं है; इसका मतलब भीतर की आग से है। भीतर एक ऐसी आग है जो जलती है और जलाती नहीं। एक बड़ी ठंडी रोशनी है; ठंडी आग बरफ जैसी ठंडी, और आग जैसी उज्जवल।
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जब तुम भीतर जाओगे तो बाहर की रोशनी से इस रोशनी का गुणधर्म अलग है। इसलिए तुम्हारे पास नई आंखें चाहिए जो इसे देख सकें। और तुम्हें अपनी आंखों को धीरे धीरे समायोजित करना होगा।
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ध्यान की सारी प्रक्रियाएं और कुछ भी नहीं हैं, सिवाय इसके कि तुम्हारी बाहर देखने के लिए जो आदत बनी है आंखों की, उसमें एक नई आदत को प्रवेश करवा दें कि तुम भीतर देखते रहो, कितना ही अंधेरा हो, अंधेरे को ही देखते रहो अंधेरे को भी देखते देखते देखते तुम एक दिन पाओगे कि अंधेरा कम होने लगा; एक धीमीसी रोशनी आने लगी। अगर तुम देखते ही गए, देखते ही गए, तो एक नई रोशनी का जगत प्रारंभ हो जाता है।
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सुनो भई साधो ~ ओशो

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