शनिवार, 29 अप्रैल 2017

= मन का अंग =(१०/८८-९०)

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*मन का अँग १०* 
प्राणी तन मन मिल रह्या, इन्द्री सकल विकार ।
दादू ब्रह्मा शूद्र घर, कहां रहे आचार ॥८८॥
जैसे ब्राह्मण वँश में उत्पन्न कोई ब्राह्मण शूद्र के घर में रहता है तब उसका ब्राह्मण के योग्य आचार कहां रहता है ? वैसे ही जब सँपूर्ण विकारों से युक्त प्राणी के शरीर और इन्द्रियों में मन मिल कर रहता है तब शरीर और इन्द्रियों के मल से वह कैसे बचेगा ? उसे हरि भजन में लगाया जाय तो शरीरादि के मल उसे विकृत नहीं कर सकेंगे ।
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दादू जीवे पलक में, मरताँ कल्प बिहाइ ।
दादू यहु मन मसखरा, जनि कोई पतियाइ ॥८९॥
इस मन का निर्विषय रूप मरण होने में तो कल्प व्यतीत हो जाते हैं किन्तु विषय - सँबन्ध रूप जीवित होना एक पल में ही हो जाता है । यह मन मसखरा है, जैसे मसखरा मनुष्य हंसी के लिए जो कुछ कह देता है, उसे करता नहीं, वैसे ही मन जो परमार्थ सम्बन्धी सँकल्प करता है, उसे पूर्ण कर दे, यह निश्चय नहीं होता । अत: कोई भी साधक इस मन पर विश्वास न करे ।
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दादू मूवा मन हम जीवित देख्या, जैसे मरघट भूत ।
मेवाँ पीछे उठ उठ लागे, ऐसा मेरा पूत१॥९०॥
जैसे मरा हुआ मनुष्य श्मशान में भूत होकर लोगों को व्यथित करता है वैसे ही यह मन भी निर्विषय रूप मृत्यु को प्राप्त होकर भी विषय - सम्बन्ध रूप जीवितावस्था में आ जाता है, यह हमने देखा है । यह मन निस्सँकल्प हो जाने पर भी विषय प्राप्ति के लिए पुन: सँकल्प रूप से उठ - उठ कर विषयों में लग जाता है । यह हमारा मन छोटे पुत्र१ के समान चँचल है । 
(क्रमशः)

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