शनिवार, 29 अप्रैल 2017

= विन्दु (२)९८ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)* 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९८ =*
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गरीबदासजी ने रज्जबजी का समर्थन करते हुये कहा कि रज्जबजी यथार्थ ही कहते हैं । फिर दादूजी महाराज की साखी बोली - 
*“जब दिल मिले दयाल से, तब अन्तर कुछ नांहिं ।* 
*ज्यों पाला पानी मिले, त्यों हरिजन हरि मांहिं ॥”* 
जब दयालु परमात्मा से भक्त का मन मिल जाता है तब भगवान् और भक्त में कुछ भी भेद नहीं रहता है । वह तो जैसे बर्फ का पत्थर सूर्य की आतप से गलकर जल में मिल जता है, वैसे ही हरिभक्त की आत्मा भी मिथ्या जीवत्व अहंकार ब्रह्म ज्ञान द्वारा गल जाने पर परब्रह्म में मिल जाता है । फिर दूसरी साखी भी सुनाई -
*“काया सूक्षम कर मिलै, ऐसा कोई एक ।* 
*दादू आतम ले मिलै, ऐसे बहुत अनेक ॥”* 
आत्मा को सांसारिक भावना से ऊँचा लेकर अर्थात् आत्मा को मायिक प्रपंच से भिन्न ब्रह्म रूप जानकार परब्रह्म में मिलने वाले संत तो बहुत होते हैं और उक्त प्रक्रिया से अनेक ब्रह्म में मिले भी हैं किन्तु अपने स्थूल शरीर को भी साथ लेकर अर्थात् पीछे न छोड़कर परब्रह्म में मिलने वाला संत कोई विरला ही होता है । उक्त दोनों साखियाँ सुनाकर गरीबदासजी ने कहा - महाराज दादूजी ने जो अपने श्रीमुख से उक्त दो साखियों में कहा था, सो सर्वथा सत्य करके दिखा दिया है । आप असंख्य लोगों ने शरीर अदृश्य होने की लीला अपने नेत्रों से प्रत्यक्ष देखि है । इस लीला से यह सबको ही निश्चय होता है कि ऐसे संत होना अत्यन्त दुर्लभ है । संत सुन्दरदासजी ने दादूजी की स्तुति करते हुये गुरु महिमा अष्टक छंद पांच में दादूजी महाराज को अयोनि कहा है - *“अजोन्यं अनायास पाये अनादू ।”*
*{“आकार भार, छाया अरु वासं, साधु कपुरै चारों नासं ।*
*अंजन पलट निरंजन होई, यह गति बूझे विरला कोई ॥ ८२ ॥*
*देही ले नभ उड़िगे दादू, कलि में भये सु साधू आदू ।*
*भूले लोग न जाना भेवा, दादू भये निरंजन देवा ॥ ८३ ॥”* 
(जनगोपाल कृत० विश्राम १५ चौपाई ८२।८३) 
जैसे कपूर का आकार, भार(बोझ), छाया और सुगन्ध खुले आकाश में रखने से देखते-देखते ही उक्त चारों ही नहीं रहते हैं, वैसे ही उच्चकोटि के संतों के भी शरीर का आकार, शरीर का भार, शरीर की छाया और शरीर की गंध ये चारों ही नहीं रहते हैं । वे तो अंजन(मायिक) शरीर से अपने को बदलकर अर्थात् शरीर रूप न रहकर निरंजन रूप ही हो जाते हैं । किन्तु इस स्थिति की कोई विरले ज्ञानी जन ही जानते हैं, अन्य नहीं ॥८२॥ 
देखो दादूजी देखते - देखते ही शरीर को पालकी से उठाकर आकाश में उड़ गये और यहां आये हुये सब लोगों को गुफा द्वार पर खड़े रहकर दर्शन दिया है । कलियुग में ये आदि काल के सनक मुनिजी संत प्रवर दादूजी के रूप में प्रकट हुये थे । भूले हुये लोग उनके रहस्यमय जीवन को नहीं जान सके । वे तो पहले भी निरंजन देव के स्वरूप सनकजी थे और बीच में लोक कल्याणार्थ दादूजी का रूप धारण करके के भूमण्डल में रहे और अपना कार्य पूर्ण करके अंत में निरंजन देव रूप सनकजी के स्वरूप को प्राप्त हो गये हैं ॥८३॥} 
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सनकजी ब्रह्मज्ञानी होने से ब्रह्म रूप ही हैं, ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म रूप ही होता है, यह श्रुति कहती ही है । अतः सनकजी के स्वरूप को प्राप्त होना ब्रह्म को ही प्राप्त होना है । ब्रह्म में और सनकजी में कुछ भी भेद नहीं है । यह दादूजी ने भी कहा - 
*आप निरंजन यूं कहैं, कीरति करतार ।* 
*मैं जन सेवक द्वै नहीं, एकहि अंग सार ॥टेक॥* 
*मम कारण सब परहरै, आपा अभिमान ।* 
*सदा अखंडित उर धरे, बोले भगवान ॥ १ ॥* 
*अंतर पट जीवे नहीं, तब ही मर जाय ।* 
*बिछुरे तलफे मीन ज्यों, जीवे जल आय ॥ २ ॥* 
*क्षीर नीर ज्यों मिल रहै, जल जलहि समान ।* 
*आतम पाणी लौण ज्यों, दूजा नांहीं आन ॥ ३ ॥* 
*मैं जन सेवक द्वै नहीं, मेरा विश्राम ।* 
*मेरा जन मुझ सारिखा, दादू कहै रे राम ॥ ४ ॥”* 
उक्त संतों के विचारों से तथा उक्त घटना से दादूजी महाराज का महान् महत्त्व सूचित होता है । 
(क्रमशः)

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