शुक्रवार, 21 अप्रैल 2017

= मन का अंग =(१०/६४-६)

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐 

*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*मन का अँग १०*
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*अन्य लग्न व्यभिचार*
दादू साधु शब्द सौं मिल रहे, मन राखे विलमाइ ।
साधु शब्द बिन क्यों रहे, तब ही बीखर जाइ ॥६४॥
सत्पुरुषों के ज्ञान, भक्ति, वैराग्यादि पूर्ण श्रेष्ठ शब्दों का विचार करता रहे, उन्हीं में अपने मन को रोके रक्खे, क्योंकि यह मन सत्पुरुषों के शब्दों के आश्रय बिना रुक नहीं सकता, इन्द्रियों के साथ होकर तत्काल विषयों में फैल जाता है ।
एक निरंजन नाम सौं, कै साधू संगति माँहिं ।
दादू मन विलमाइये, दूजा कोई नांहिं ॥६५॥
मन को निरँतर निरंजन राम के नाम चिन्तन में और सदा सन्तों की संगति में रखना चाहिए । ये दो ही मनोनिग्रह के सुगम साधन हैं । इन दोनों से मन को रोक कर अद्वैत ब्रह्म में लीन करो । ब्रह्म से भिन्न कुछ भी सत्य नहीं है ।
तन में मन आये नहीं, निश दिन बाहर जाइ ।
दादू मेरा जीव दुखी, रहे नहीं ल्यौ लाइ ॥६६॥
यह मन शरीर के हृदय कमलस्थ ब्रह्म प्रदेश में नहीं आता । बहिर्मुख होकर रात्रि दिन विषयों में ही जाता है । अपनी वृत्ति हृदयस्थ आत्मस्वरूप ब्रह्म में लगाकर स्थिर नहीं रहता । इसी से मेरा हृदय व्यथित रहता है ।
(क्रमशः)

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