शुक्रवार, 21 अप्रैल 2017

= विन्दु (२)९८ =

#daduji

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)* 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= अथ विन्दु ९८ =*
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*= महाप्रयाण =* 
*वि. सं. १६६० ज्येष्ठ(कृष्ण) अष्टमी शनिवार* के दिन प्रातःकाल ही दादूजी ने अपने सब शिष्य संतों को बुलाकर दर्शन दिया और कहा - आप सब ही शीघ्र स्नान करके भोजन करलो । गुरुजी की आज्ञानुसार सब संतों ने स्नान करके भोजन करने की शीघ्रता की । उक्त आज्ञा देकर दादूजी एकान्त में बैठकर ब्रह्म भजन करने लगे । सब संत स्नान भोजन से निवृत्त हुये इतने में एक पहर दिन चढ़ गया था । फिर सभी संत भोजनादि से निवृत्त होकर दादूजी के पास गये । सबने साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और सब आस पास बैठकर ब्रह्म भजन करने लगे । तब दादूजी के मुख से यह साखी निकली - 
“जेते गुण व्यापैं जीव को, ते ते तैं तजे रे मन । 
साहिब अपने कारणैं, भलो निबाह्यो पण ॥” 
हे मन ! जितने भी मायिक गुण अन्तःकरण में व्याप्त होते हैं, उन सब को त्याग करके और उन्हें अन्तःकरण में पुनः न आने देने का प्रण करके अपने प्रभु-प्राप्ति के लिये उस प्रण का तूने अच्छा निर्वाह किया है । यह साखी अंत में कही थी कि *इतने में ही आकाश से तीन आवाज - आओ, आओ, आओ ऐसी आई । तीसरी आवाज के साथ ही दादूजी महाराज ने अपना नश्वर शरीर त्याग दिया और अन्तर्यामी परब्रह्म से जा मिले ।* 
*= परशुरामजी का मुख उदास =* 
इसी समय सलेमाबाद में अपनी गद्दी पर विराजे हुये निम्बार्क संप्रदाय के आचार्य श्री परशुरामजी महाराज का मुख सहसा उदास हो गया । तब पास बैठे हुये संतों ने पूछा - भगवन् ! आपका मुख-मंडल सहसा उदास कैसे हो गया है ? परशुरामजी महाराज ने कहा - सिद्धराज दादूदयालजी अपने देह को छोड़कर अविनाशी ब्रह्म में जा मिले हैं । यही मेरे मुख की उदासी का कारण है ? 
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संतों ने कहा - उनकी आपको क्यों चिन्ता हुई है ? वे तो आपके सिद्धान्त से भिन्न सिद्धान्त के थे । उनका पंथ ही भिन्न है । उनका साधन मार्ग भी सुखराशि परब्रह्म की प्राप्ति का हेतु ही है । यह बात आपने कैसे देखी है ? महन्तजी ने कहा - हम दादूजी से भिन्न सिद्धान्त के नहीं हैं । उनकी और हमारी आन्तर साधना एक ही है । बाहर के व्यवहार में हम अपने समाज के अनुसार ही चलते हैं किन्तु आन्तर साधना में हमारा और दादूजी का कुछ भी भेद नहीं है । कहा भी है - 
“दादुदयाल समै परसो लखि, 
संत कहैं किमि होत उदासी । 
महन्त कहैं सिध राज तज्यो तन, 
दादु दयाल मिले अविनाशी ॥ 
संत कहैं तब पंथ जुदे मत, 
किहिं विधि बात लखी सुख रासी । 
महन्त कहैं हम नांहिं जुदे कुछ, 
भीतर साधन एक उपासी ॥” 
(संत गुण सागर ग्रन्थ के २३ वें तरंग से) 
(क्रमशः)

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