शनिवार, 29 अप्रैल 2017

= ११ =

卐 सत्यराम सा 卐
सेवक बिसरै आप कौं, सेवा बिसरि न जाइ ।
दादू पूछै राम कौं, सो तत्त कहि समझाइ ॥ 
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साभार ~ Rajnish Gupta

*(((((((((( भगवान् का तन ))))))))))*
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कबीरदास जी जुलाहा परिवार में जन्मे थे. कपड़ा बुनना उनका खानदानी काम था. जीवन तो उसी से चलता था. कपड़ा बुनते हुए भी वह भगवान का ध्यान करते, भजन आदि गाते. कबीरदास जी को ईश्वर की कृपा से कुछ सिद्धियां भी प्राप्त हो गईं तो बड़े-बड़े सेठ-साहूकार और राजे-जमींदार उनके भक्त हो गए. पर कबीरदास जी तो अपना जीवन कपड़ा बुनकर ही चलाते.
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एक जमींदार शिष्य को खटकता कि सिद्ध संत होकर भी छोटा कार्य करते हैं. गुरुदेव पहले आप साधारण मानव थे तो कपड़ा बुनते थे. अब ईश्वर की आप पर कृपा है. जीविका के लिए यह छोटा काम करने की क्या आवश्यकता ? कबीरदास जी जान गए कि इसमें अभी भक्ति नहीं आई है. इसकी आंख खोलनी होगी. उन्होंने उत्तर दिया- पहले मैं कपड़े अपनी जीविका के लिए बुनता था. भक्ति समाई तो ईश्वर ने समझाया कि कपड़ा बुनना सिर्फ जीविका का काम नहीं है. ईश्वर हर शरीर में वास करता है. 
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अब किसी शरीर में ईश्वर नंगा घूमें तो क्या ये शोभा देता है ? मैं तो जन-जन में समाए भगवान का तन ढंकने के लिए कपड़े बुनता हूं. मेरा काम वही है पर अब दृष्टिकोण बदल गया है. दृष्टिकोण बदलने का फर्क यह हुआ कि कई बार जब मैं थकान अनुभवरने लगता हूं तो स्वयं भगवान आकर बुनाई में सहायता करने लगते हैं. इस छोटे काम में भी पूरी ईमानदारी रखी तभी तो भगवान की कृपा हुई.
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पहले मैं ईंच-ईंच सूत का ख्याल इसलिए रखता था क्योंकि उसमें पैसे की लागत लगी थी. आज उस सूत का ख्याल इस भाव से रखता हूं कि इससे मेरे भगवान के एक अंग के ढंकने की व्यवस्था हो जाएगीही कर रहा हूं, बस काम करने की सोच बदल गई तो ईश्वर हाथ बंटा रहा है, शिष्य अपना धन लुटाने को तैयार हैं. काम में जब हम भगवान को साक्षी देखने लगते हैं तो अंदर का चोर भाग जाता है. प्रभु की कृपा चाहिए तो अपने काम को भी दूसरों की भलाई से जोड़कर देखो. ईमानदारी और परोपकार के एक रुपए में जो ताकत होती है वह बेईमानी के लाख रूपए में भी नहीं.
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सज्जनों की परीक्षा के लिए भगवान कष्ट देते हैं. वह परखते हैं कि कहीं ये ईमानदारी क्षणिक तो नहीं ? कहीं बेईमानी का मौका मिलने पर यह गायब तो नहीं हो जाएगी ? किसी घर में बसने से पहले भगवान उसकी मजबूती जांचते हैं, परख करते हैं. जब आपका काम दूसरों का ज्यादा से ज्यादा हित साधने के लिए होने लगता है तो समझिए आपकी परेशानी भगवान की चिंता हो जाती है. उसे दूसरों के शरीर में बैठे अपने स्वरूप की भी तो रक्षा करनी है.
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चाह मिटी, चिंता मिटी... 
मनवा बेपरवाह, 
जिसको कुछ नहीं चाहिए... 
वे शाहन के शाह
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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