शुक्रवार, 5 मई 2017

= २३ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू उलट अनूठा आप में, अंतर सोध सुजाण ।
सो ढिग तेरे बावरे, तज बाहर की बाण ॥ 
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साभार ~ Gems of Osho
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*आनंद गौण उत्पाद है*
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दुनिया में अधर्म तब तक बढ़ता ही चला जाएगा, जब तक हम धर्म की भी वासना करते हैं। और आप कोई नए नहीं हैं। इस जमीन पर कोई भी नया नहीं है। सब इतने पुराने और प्राचीन हैं, जिसका हिसाब नहीं। और सब इतने इतने रास्तों पर, इतने इतने मार्गों पर चल चुके हैं, जिसका हिसाब नहीं। और उन सबमें असफलता पाकर आप निराश और हताश हो गए हैं। वह हताशा प्राणों में गहरे बैठ गई है। उस हताशा को तोड़ना ही आज सबसे बड़ी कठिनाई की बात हो गई है। और अगर कोई तोड़ना चाहे, तो एक ही उपाय दिखता है कि फिर आपकी वासना को कोई जोर से जगाए, और कहे कि इससे यह हो जाएगा, तभी आप थोड़ा हिम्मत जुटाते हैं। लेकिन वही, वासना का जगाना ही तो सारे उपद्रव की जड़ है।
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बुद्ध ने एक अनूठा प्रयोग किया था। और बुद्ध के समय में भी हालत यही थी, जो आज हो गई है। यह हमेशा हो जाती है। और जब भी दुनिया में बुद्ध या महावीर जैसे लोग पैदा होते हैं तो उनके पीछे हजारों साल तक एक छाया का काल व्यतीत होता है। होगा ही। जब बुद्ध या कृष्ण जैसा कोई व्यक्ति पैदा होता है, तो उसको देख कर, उसके अहसास में, उसके संपर्क में, उसकी हवा में हजारों लोग वासना से भर जाते हैं धर्म की। और उनको लगता है कि हो सकता है। भरोसा जगता है देख कर, कि जब बुद्ध को हो सकता है, तो हमें भी हो सकता है। और अगर इन्होंने भूल कर ली और इस होने को वासना बना लिया, तो बुद्ध के बाद ये व्यक्ति हजारों साल तक उस वासना के कारण धीरे धीरे परेशान होकर अधार्मिक हो जाएंगे।
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शर्त समझ लें ! आनंद उपलब्ध हो सकता है, लेकिन आप उसको लक्ष्य न बनाएं। वह लक्ष्य नहीं है। परम शांति हो सकती है, लेकिन लक्ष्य न बनाएं। वह लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य तो बनाएं आप ज्ञान को, समझ को; लक्ष्य तो बनाएं आप ध्यान को, लक्ष्य तो बनाएं आप अपने भीतर थिरता को, लक्ष्य बनाएं रुक जाने को, अपने भीतर आ जाने कों—परिणाम में आनंद चला आएगा। वह उसके पीछे आ ही जाता है। उलटा न करें; आनंद को लक्ष्य न बनाएं। जिसने आनंद को लक्ष्य बनाया, बस वह मुश्किल में पड़ गया।
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परिणाम परिणाम हैं लक्ष्य नहीं हैं।
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ऐसा समझें, सामान्य जीवन से कोई उदाहरण ले लें, तो आसानी हो जाए। आप कोई खेल खेलते हैं। फुटबाल खेलते हैं, हाकी खेलते हैं, टेनिस खेलते हैं कुछ भी खेलते हैं, कबड्डी खेलते हैं कोई खेल खेलते हैं, बड़ा आनंद अनुभव होता है। किसी से आप कहें कि कबड्डी खेलता हूं, टेनिस खेलता हूं, बड़ा आनंद आता है ! वह आदमी कहे, आनंद तो हमें भी चाहिए, कल हम भी आकर देखेंगे खेल कर कि आनंद आता है कि नहीं। वह आदमी खेलने आए, और सतत इस बात का खयाल रखे, कि आनंद आ रहा है कि नहीं? तो आनंद आ रहा है कि नहीं, इस खयाल की वजह से पहली तो बात यह कि खेल में लीन ही नहीं हो पाएगा; खेल हो जाएगा गौण, आनंद हो जाएगा प्रमुख। हर बार जब वह तू तू करके कबड्डी में प्रवेश करेगा, तो वह तू तू रह जाएगी गौण, भीतर खोजता रहेगा अभी तक आनंद आया नहीं ! यह आनंद आ नहीं रहा, यह मैं क्या कर रहा हूं तू तू? इससे क्या होने वाला है? अभी तक आनंद आया नहीं ! खेल के बाद वह सिर्फ थकेगा और कहेगा कि कुछ आनंद वगैरह मिलता नहीं, यह क्या है?
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आनंद जो खेल में पाने जाएगा खेल भी खराब हो जाएगा, आनंद तो मिलेगा नहीं। आनंद है बाइ प्रॉडक्ट। खेल में पूरे लीन हो जाएं, तो आनंद घटता है। आनंद का ही खयाल बना रहे तो लीन नहीं हो पाते। लीन नहीं हो पाते तो आनंद कैसे घटेगा !
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यह पूरा जीवन ऐसा है। यहां सब चीजें बाइ प्रॉडक्ट हैं। जो भी महत्वपूर्ण है, वह चुपचाप घटता है। जो भी गहरा है, उसका लक्ष्य नहीं बनाना होता। लक्ष्य बनाने से ही उसका द्वार बंद हो जाता है। अनायास घटता है आनंद, आकस्मिक घटता है आनंद। सचेत कोई बैठा रहे, तो वह सचेत बैठने में ही इतना तनाव हो जाता है कि द्वार बंद हो जाते हैं, दीवाल बन जाती है तनाव की, और आनंद नहीं घटता है।
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इस सूत्र पर खयाल रखना, यह सूत्र खतरनाक है। यह सूत्र सभी शास्त्रों में है। और जिन जिन ने उन शास्त्रों को पढ़ा है, उनकी वासना जग गई है। और वे खोज में लगे हैं कि कैसे हथिया लें मोक्ष को! मोक्ष हथियाए नहीं जाते; लीन होकर मोक्ष मिलता है। कैसे पा लें आनंद को ! कैसे आनंद नहीं पाया जाता। कुछ करें, जिसमें इतने डूब जाएं कि अपनी भी खबर न रहे, आनंद की भी खबर न रहे और अचानक जाग कर पाया जाता है कि आनंद ही आनंद रह गया है, आप जो खोजते थे, जो खोज खोज कर नहीं मिलता था, वह मिल गया है।
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*अध्यात्म उपनिषद ~ ओशो*



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