सोमवार, 26 जून 2017

= माया का अंग =(१२/१००-२)

#daduji


卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*माया का अंग १२*
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चार पदारथ मुक्ति बापुरी, अठ सिधि नौ निधि चेरी । 
माया दासी ताके आगे, जहं भक्ति निरंजन तेरी ॥ १०० ॥ 
हे निरंजन राम ! जहां आपकी भक्ति होती है वहां - अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष ये चारों पदार्थ और सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य चार मुक्ति सेवा में रहती हैँ तथा अष्ट सिद्धि, नौ निधि तो बेचारी बहुत मात्रा में सेविका के समान सेवा करती रहती हैं । इस प्रकार माया भक्त के आगे दासी के समान खड़ी रहती है । 
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दादू कहै, माया चेरी साधुहि सेवै । 
साधुन कबहूँ आदर देवै ॥ 
दादू कहै - ज्यों आये त्यों जाइ विचारी ।
विलसी१, वितड़ी२, न माथा३ मारी ॥ १०१ ॥
दादूजी महाराज कहते हैं - विरक्त सँतों के माया आती है वैसे ही चली जाती है । क्योंकि - विरक्तों ने न तो इसे भोगी१ और न वितरण२ ही की, उन्होंने तो जब आई तब ही त्याग३ दी । यही विरक्तों का व्यवहार रहा है । अष्ट सिद्धि, नौ निधि नाम, अँग २ - १०४ में देखो । 
दादू माया सब गहले किये, चौरासी लख जीव । 
ताका चेरी क्या करे, जे रंग राते पीव ॥ १०२ ॥ 
माया ने चौरासी लक्ष योनियों के सभी जीवों को उन्मत्त कर दिया है किन्तु जो भगवान् की भक्ति के रँग में अनुरक्त हैं, उनका यह क्या कर सकती है ? उन्हें उन्मत्त न बना कर सेविका के समान उनकी सेवा करती है ।
(क्रमशः)

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